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___ श्रीमद्भगवद्गीता रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम् ।
तन्निवनाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम् ॥७॥ अन्वयः। रजः रागात्मकं ( अनुरजनरूपं ) तृष्णासंगसमुद्भवम् (तृष्णा अप्राप्ताभिलाषः आसंगः प्राप्तेऽथ प्रीतिः, तधो: तृष्णा संगयोः समुद्भवः यस्मात् तत् ); हे कौन्तेय ! तत् ( रजः ) देहिनं कर्मसंगेन निबध्नाति ॥ ७॥
अनुवाद। हे कौन्तेय ! रजोगुणको रागात्मक तथा तृष्णा और आसंग का .उत्पादक रूप जानना; यह देही को कर्मके साथ निबद्ध करता है ॥ ७॥
व्याख्या। जिससे जन्म होय वही रजोगुण है। रजः रजन क्रियाको भी कहते हैं; जैसे सफेद वस्त्र किसी रंगसे रंगा लेना। निर्मल ब्रह्ममें मायाविकार अहंकार लगाकर जीव-सजानेकी क्रियाका नाम भी रजा है। यह रजोगुण रागात्मक अर्थात् अनुरागमय है। इस अनुरागसे ही तृष्णा और प्रासंगकी उत्पत्ति होती है। अप्राप्त विषयमें अभिलाषाका नाम तृष्णा और प्राप्त विषयमें मनकी प्रीतिका नाम संग है। यह समस्त ही क्रिया है। मैं बिना और दूसरे एक को प्राप्त होनेके लिये कार्य में जो प्रेरणा करता है, वही रजोगुण है। इस प्रेरणाका सूत्र ही अनुराग है । उस अनुरागकी शक्ति ही आसक्ति है। उस प्रासचिसे ही अधीनता स्वीकार की जाती है। वह अधीनता स्वीकार ही बन्धन है। उस स्वीकार अंशको कर्म, और अधीनता अंशको बन्धन जानना। रजोगुणसे ही जीव अनुरागका वश क्त्ती होकर कर्ममें आबद्ध होता है ।। ७ ॥
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ अन्वयः। हे भारत ! तमः तु अज्ञानजं ( अज्ञानात् जातं) सर्व देहिनां ( सर्वेषां देहवता ) मोहनं ( भ्रान्तिजनक ) विद्धि; तत् ( तमः ) प्रमादालस्यनिद्राभिः निवघ्नाति ॥८॥