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चतुर्दश अध्याय
१७६ ज्ञानसंगेन च (प्रकाशकत्वाच्च स्वकार्येण ज्ञानेन थः संगस्तेन च ) बध्नाति ( अहं सुखी ज्ञानी चेति मनोधर्मास्तदभिमानिनि क्षेत्रज्ञ संयोजयन्तीत्यर्थः ) ॥ ६॥
अनुवाद। हे अनघ ( अपाप )! उन तीन गुणके भीतर सत्त्वगुण स्वच्छत्व हेतु प्रकाशक ( भास्वर ) और अनामय ( शान्त) है, ( इसलिये) सुखसंग तथा ज्ञानसंग द्वारा बद्ध करता है ॥ ६॥
व्याख्या। उन तीन गुणोंके भीतर सत्त्वगुण स्वच्छ और सबका प्रकाशक तथा शान्त है, इसलिये सुखके साथ (सु-सुन्दर +ख= शून्य, अर्थात् कष्टविहीन अवकाश अवस्थाके साथ) और ज्ञानके साथ मिलन करता है, अर्थात् मैं सुखी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ इत्याकार मनोवृति उत्पन्न करता है। इस मिलनका नाम उपद्रव वा बन्धन है। क्योंकि मैं अवधिरहित महान् बिना और कुछ भी नहीं हूँ; तथापि दूसरी एक अवस्तुको सुख नाम देकर खड़ा कराके “मैं” के साथ मिलन कराता है, जिस मैंमें और कुछ भी आनेकी जगह नहीं है । फिर ज्ञान के साथ भी मिला देता है। यह जो आत्म-विस्मृति भ्रम है, यही बन्धन है। ___ ज्ञान शब्दके भीतर ज, ब, आ, न यह चार वर्ण हैं । इनके भीतर "ज" वर्णका अर्थ है जायमान अर्थात् उत्पति-स्थिति-नाशशील जो कुछ है वही; और "ब" वर्णका अर्थ है गन्धाणु, अर्थात् पञ्च तन्मात्रा शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धको मिश्रण-क्रिया जिसमें प्रकाश पाती है वही। यह दोनों वर्ण मिल करके "ज्ञ" हुआ। यह "" शब्दका अर्थ है - उत्पत्ति-स्थिति-नाशशील शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध संकूल जो कुछ है। "आ" वर्णका अर्थ है आसक्ति, और "न" वर्णका अर्थ नास्ति है। तब ही हुआ, उत्पत्ति-स्थिति-नाशशील शब्द-स्पर्श-रूपरस-गन्ध युक्त जो कुछ है उसमें आसक्ति न रहनेकी अवस्थाका नाम "ज्ञान" है। जो इस ज्ञानके साथ मिला देता है वही सत्त्वगुण है। अब साधक ! समझ लो, सुखके साथ और ज्ञानके साथ मिलकर जो बन्धन, वह कैसा है ? ॥६॥