________________
चतुर्दश अध्याय
१७७ ___ अनुवाद। हे भारत । महद्ब्रह्म मेरी योनि ( गर्भाधाम स्थान ) है, मैं उसमें गर्भ ( जगद्वीज ) प्रक्षेप करता हूँ, उससे ही सर्वभूतों उत्पत्ति होती है ॥ ३ ॥
व्याख्या। मम शब्दका अर्थ है मेरा अर्थात् अहंकारका । योनि=स्थितिका स्थान (आकर )। महद्ब्रह्म-महत् कहते हैं सबसे बड़ेको, सब लोग ढूढ़ करके जिसका कूल-किनारा नहीं पाते, अवधि रहित महान् न हो करके भी सबके पास अवधि रहित महान्का भान दिखठा कर जो धोखा देता है, वही महत् है; इसलिये इसका एक नाम है महद्ब्रह्म वा माया। तभी अहंकारकी स्थितिका स्थान माया हुई। उस मायामें मैं गर्भाधान करता हूँ, अर्थात् “मैं” जब उस माया का आश्रय लेता हूँ, तभी मायाको गर्भ ( उत्पादिका शक्ति ) होता है; इसका कारण यह है कि यदि मैं मायाका आश्रय न करूं तो माया बन्न्धा ही रह जाती है, कुछ उत्पन्न करनेकी शक्ति उसमें नहीं रह जाती। उक्त प्रकारसे मायाके गर्भ होनेसे ही माया सर्वभूतको (इस जगत्को ) प्रसव करती है। ज्ञानमें सृष्टि नहीं; सृष्टि अज्ञानतामें है। इसलिये सृष्टि-प्रकरण समझाने जाओ तो "मैं मायाको (अज्ञानताको) आश्रय करता हूँ" यह बात कहना ही पड़ता है । हम अः १७ श्लोक देखो॥३॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। .. तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ ४ ॥
अन्वयः। हे कौन्तेय ! मर्वयोनिषु याः मूर्तयः सम्भवन्ति ( उत्पद्यन्ते ) तासां (मूर्तीना ) महद्ब्रह्म (प्रकृतिः ) योनिः (मातृस्थानीया ) अहं बीजप्रदा (गर्भाधानकर्ता ) पिता ॥ ४ ॥
अनुवाद। हे कौन्तेय ! सर्व योनियों में जो जो मूत्ति उत्पन्न होती हैं, महद्ब्रह्म उन सबकी योनि ( माता ) और मैं बीजप्रद पिता हूँ॥ ४ ॥
व्याख्या। हे अर्जुन ! देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जितने प्रकारको योनि हैं, और उन सबसे जितने प्रकारकी मूर्ति