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श्रीमद्भगवद्गीता साधने उद्यमः ) अशमः ( इदं कृत्वेदं करिष्यामी-त्यादिसङ्कल्प विकल्पानुपरमः (स्पृहा) ( दृष्टमात्रेषु वस्तुषु जिघृक्षा ) एतानि (लिङ्गानि ) रजसि विवृद्ध ( सति ) जायन्ते ॥ १२॥
अनुवाद। हे भरतर्षभ ! लोभ, प्रवृत्ति, कर्म समूह का आरम्भ, अशम तथा स्पृहा, यह सब चिन्ह रजोगुण की वृद्धि ह नेसे उत्पन्न होते हैं ।। १२ ॥
व्याख्या। बहुत धनादि होनेसे भी और अधिक पानेके लिये जो लालसा बढ़ती रहती है, उसीका नाम लोभ है। विषय भोग करने वाली इच्छाका नाम प्रवृत्ति है । इच्छा पूरण करनेके लिये उद्यम करने का नाम कर्मारम्भ है। यह करूगा, वह करूंगा, इस प्रकार कोई . किसीसे मनकी तृप्ति न होनेसे जो अशान्ति भोग होती है, उसीका नाम अशभ है। पदार्थ देखते मात्र ही लेनेकी इच्छा होनेका नाम स्पृहा है। जब मनमें इन सब वृत्तियांका उदय हो, तब ही जानना होगा कि रजोगुणकी वृद्धि हुई है ॥ १२॥
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्ध कुरुनन्दनं ॥ १३ ॥ अन्वयः। हे कुरुनन्दन ! अप्रकाशः ( विवेक-शः ) अप्रवृत्तिः च (अनुद्यमः) प्रमादः (कर्तव्यार्थांनुसन्धानराहित्यं ) मोहः ( मिथ्याभिनिवेशः ) एव च, एतानि तमसि बिवृद्ध सति जायन्ते ॥ १३ ॥
अनुवाद । हे कुरुनन्दन ! अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह यह सब चिन्ह तमोगुणकी वृद्धि होनेसे उत्पन्न होते हैं ॥ १३ ॥
व्याख्या। काम काज करनेकी शक्ति सामर्थ्य सब है, परन्तु कैसे करना होता है, यह समझने वाली ज्योति नहीं, ऐसे जड़भावापन्न अवस्थाको अप्रकाश कहते हैं ।
करनेसे सब कर सकूगा, परन्तु उद्यम नहीं है, मनकी ऐसी गुरुत्व अवस्थाको अप्रवृत्ति कहते हैं।