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श्रीरद्भगवद्गीता ब्रती होकरके जो साधक अपने शरीरके भीतर क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका प्रभेद एवं प्राकृतिक लाभ करनेकी धारणा, ध्यानादि उपाय प्रत्यक्ष करके निजबोध-रूपसे प्रबुद्ध होते.हैं, वे साधक जितने दिन शरीर धारण करके रहेंगे, उतने दिन जीवन्मुक्त और देहपातात अनन्तर स्वस्वरूपमें "अर्थात् ब्रह्ममें मिल जाते हैं, फिर उनको पुनर्जन्म धारण करने नहीं होता ॥ ३५ ॥
इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र श्रीकृष्णार्जुन संवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम
त्रयोदशोऽध्यायः