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त्रयोदश अध्याय यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः । क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ ३४ ॥
अन्वयः। हे भारत ! यथा एकः रविः ( सूर्यः) इमं कृत्स्नं लोकं प्रकाशयति तथा क्षेत्री कृत्स्नं क्षेत्रं प्रकाशयति ॥ ३४॥
अनुवाद। हे भारत ! एक सूर्य जैसे इस समग्र लोकको प्रकाशित करता है, तसे क्षेत्री ( परमात्मा ) समग्र क्षेत्रोंको प्रकाशित करता है ॥ ३४ ॥
व्याख्या। हे भारत ! एक सूर्य जैसे समस्त लोकको प्रकाशित करता है, परन्तु किसीके साथ लिप्त नहीं होता; तैसे जितना क्षेत्र है, एक क्षेत्री (आत्मा) सब क्षेत्रको प्रकाश करते हैं, परन्तु लिप्त नहीं होते ॥ ३४॥
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा । भूतप्रकृतिमोक्षच ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३५॥
अन्वयः। एवं (उक्त प्रकारेण ) क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः अन्तरं ( भेदं ) भूत-प्रकृतिमोक्ष च ( भूतानां प्रकृतिः तस्याः सकाशात् मोक्ष मोक्षोपायं ध्यानादिकं च) ये ज्ञानचक्षुषा ( शास्त्राचार्योपदेशजमितमात्मप्रत्यायिकं ज्ञानं चक्षुस्तेन ) विदुः, . ते परं यान्ति ( परमार्थतत्त्वं ब्रह्म गच्छन्ति, न पुनर्देहमाददतीत्यर्थः ) ॥ ३५। .
अनुवाद । उक्त प्रकार से ज्ञानचक्षु द्वारा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका प्रभेद तथा प्रकृतिसे भूतगणोंके मोक्षका उपाय जो लोग जानते हैं, वे सब परमार्थतत्त्वमें ( ब्रह्ममें) गमन करते हैं ॥ ३५ ॥
व्याख्या। वह जो क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, प्रकृति, प्रकृति-विकृति (भूत ), और मोक्ष अर्थात् इन सबसे अलग होनेकी कथा कही हुई है, इनके भीतर क्षेत्र, प्रकृति और प्रकृति-विकृतिसे क्षेत्रज्ञ जो सर्वथा ( एकदम ) भिन्न है, यही शास्त्रका प्रमाण, और वही शास्त्रवाक्य गुरूपदेश करके प्रमाणित है । और उस शास्त्रवाक्य तथा गुरूपदेश अनुसार साधनमें