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श्रीमद्भगवद्गीता
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एब च नान्येन ) सर्वश: ( सर्वप्रकारैः ) क्रियमाणानि पश्यति तथा आत्मानं ( क्ष त्रज्ञ अत्तरं ( सर्वोपाधिविवर्जितं ) पश्यति, सः पश्यति ( स एव परमार्थदर्शी ) ॥ ३० ॥
अनुवाद | कर्म समूह प्रकृति द्वारा ही सर्व प्रकार से कृत होता है और आत्मा अती है, ऐसा जो देखते हैं, वे ही परमार्थदर्शी हैं ।। ३० ।।
व्याख्या | छोटी छोटी लड़कियाँकी खेलवाड़ी घर गृहस्थी जैसे भविष्यत् विलास के लिये प्रस्तुत होनेकी शिक्षारम्भ करता है; उसी तरह उस आत्मघातिनी ( आत्माको नष्ट करती है ) मायाको दूर करके पुनः स्वस्वरूप में स्थितिके लिये प्रथम अभ्यास है यह वचन - विलास ( जी यहाँ समझा और समझाया जाता है ) । त्रिगुणात्मिका प्रकृति भगवानको माया है। कार्य और कारण में यह मायाही अपना परिणाम श्रापही आप दिखला देती है । इसलिये करण और निवृत्ति इन दोनोंका ही कर्त्ता वह खुद है इससे इसका नाम प्रकृति है । जितने प्रकार के कार्य-कारण-कर्त्ता सम्बन्ध जहाँ आवेगा, वे समस्त हौ यह विलासिनी प्रकृति है । "मैं" उस अनन्त ज्योतिस्वरूप बिना और कुछ भी नहीं । - यह अपरोक्ष ज्ञान ही अपनेको आप अकर्त्ता दिखा देता है । साधन- विशेषसे जिसने ऐसी दृष्टि पाई है, वही साधक अपनेको कर्त्ता देखता है ।। ३० ।।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
ततएव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३१॥
अन्वयः । यदा ( यस्मिन् काले ) भूतपृथग्भावं ( भूतानां भेदं ) एकस्थं ( एकस्मिन्नात्मनि स्थितं ) अनुपश्यति, तत एव च ( तस्मात् आत्मने एव च ) विस्तार (उत्पत्ति ) अनुपश्यति, तदा ( तस्मिन् काले ) ब्रह्म सम्पद्यते ( ब्रह्मव भवति ) ॥ ३१ ॥
अनुवाद | जब ( जो ) भूतसमूहके पृथकू भावको एकस्थ ( एक आत्मा में अवस्थित ) दर्शन करते हैं, और उन्हींसे ( उसी एक आत्मा से ) भूतसमूहके विस्तार दर्शन करते हैं, तब वे ब्रह्म हो जाते हैं ॥ ३१ ॥