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त्रयोदश अध्याय
१६६ समं पश्यन् हि सर्वत्र समपस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ २६ ॥ अन्वयः। हि (यस्मात् ) सर्वत्र ( सर्वभूतेषु ) समं समवस्थितं ईश्वरं ( परमात्मानं ) पश्यन् आत्मना (स्वेनैव ) आत्मानं न हिनस्ति ( अविद्यया सच्चिदानन्दरूपमात्मानं तिरस्कृत्य न विनाशयति ), तता ( तस्मात् ) परी गति (मोक्ष) याति ( प्राप्नोति ) ॥ २९ ॥
अनुवाद। क्योंकि सर्वत्र समान भावसे सम्यक् अवस्थित परमात्माको दर्शन करनेवाला पुरुष अपनेको विनष्ट नहीं करता, इसलिये परागति ( मोक्ष ) को प्राप्त होता है ॥ २९ ॥
व्याख्या। पूर्व श्लोकमें जो ब्रह्म, ईश्वर, परमेश्वर समझा गया, उसमें और कोई किसीका स्थान मिलनेकी जगह नहीं है। यह, वह कह करके निर्दश करनेका कोई कुछ भी नहीं है। भूत भविष्यत् कह करके प्रकाश करनेका कोई काल भी नहीं है। प्रज्ज्वलित अग्नि शिखा की चद्दर (ोड़ना) सदृश एकही वस्तु (ब्रह्म) विद्यमान है। यह अनादि, अनन्त, ज्योतिस्वरूप ही स्वयं मैं हूँ। ऐसा कौन प्राकृतिक भ्रम है, जो मेरे इस स्वस्वरूपमें बिघ्नोत्पत्ति कर सकता है ? और वह भ्रम भी कैसा ? कहाँ रहता है ?-इस शासनके भीतर अविच्छिन्न रहनेसे मिथ्यासे सत्यको काट कर आत्मघाती होना नहीं होता, अर्थात् "मैं जीव हूँ" इस अज्ञानतामें उतर कर "मैं परमात्मा हूँ" इस ज्ञानका विनाश साधन करना नहीं पड़ता-अपनेको अपना हीनत्व स्वीकार करना नहीं होता। इसलिये परागति (ब्राह्मीस्थिति ) आप ही आप स्थायी होती है ॥ २६ ॥
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ ३० ॥ अन्वयः। यः कर्माणि प्रकृत्या एव च ( देहेन्द्रियाकारेण परिणतया मायया