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त्रयोदश अध्याय
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उद्देशमें चरम साधनका उपदेश जानना। साधक ! इसका स्पष्ट प्रमाण देखो। जिस दिन तुम क्रिया करनेके लिये बैठ करके क्रियाकी परावस्था पानेकी इच्छा न रक्खो, उसी दिन तुम्हारी उस क्रियाकी परावस्थाको प्राप्ति होती है, और जिस दिन रक्खो, उस दिन कदापि नहीं होती ॥२७॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ २८ ॥ अन्धयः। यः सर्वेषु ( स्थावरजममात्मकेषु ) भूतेषु समं (निवि-शेषसद्र पेण यथा भवत्येवं ( तिष्ठन्तं विनश्यत्सु अविनश्यन्तं परमेश्वरं ( परमात्मानं ) पश्यति सः पश्यति ( स एव सम्यक् पश्यति नान्य इत्यर्थः ) ॥२८॥
अनुवाद। जो परमेश्वर को सर्वभूतोंमें समभावसे अवस्थित तथा भूतगणों के विनाशसे उनको अविनाशी दर्शन करता है; वही पुरुष सम्यक् दर्शन करता है ॥२८॥
व्याख्या। "परं” अर्थमें केवल, श्रेष्ठ; और 'ईश्वर' अर्थमें माया संयुक्त ब्रह्म। प्रकृति की ज्योति नहीं, पुरुषमें ज्योति है। पुरुष-संयोग से प्रकृतिमें जो इच्छा, क्रिया और ज्ञानशक्तिकी भ्रमोत्पत्ति होती है, प्रकृति उस भ्रमको पुरुषमें डाल कर, पुरुषकी ज्योति अपनेमें लेकर, पुरुषको कर्ता सजा कर आप खुद जो स्वयंज्योति और अकर्ता सज बैठती है, उस द्वयात्मक अवस्थाका नाम ईश्वर * है। जिस ईश्वर में
* चक्षु की मणियां गोल और बहुत छोटी हैं। परन्तु उसी आंख को मणियोसे दृकशक्ति बाहर आकर महाकाश का जितना स्थान अधिकार करती है वह अतीव महान् है। दृकशक्ति का केन्द्रस्थान गोलक होनेसे आकाश का जितना स्थान अधिकार करता है वह समस्त गोलाकारसे बोधमें आता है। उतना गोलक आकाशके भीतर कितनी चक्षु को मणियां स्थान पा सकता है, उसकी संख्या नहीं होती, चिन्ता करके भी निर्णय किया नहीं जा सकता। उसी तरह परिपूर्ण