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श्रीमद्भगवद्गीता धीरे उसीमें भक्तिका विकाश होनेसे उन सबकी बहिवृत्तिका निरोध होता है। तब बाहरका उपदेश अन्तरके भीतर नादरूपमें परिणत होता है । उसी नादको सुनते मन विष्णुपदमें लय हो जाता है ॥२६॥
यावत्संजायते किन्चित्सत्वं स्थावरजंगमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् तद्विद्वि भरतर्षभ ।। २७ ॥ अन्वयः। हे भरतर्षभ । यावत् किञ्चित् स्थावरजंगमं सत्त्वं ( यत् किञ्चित् वस्तुमात्रं ) संजायते ( समुत्पद्यते ) तत् (सर्वे ) क्षेत्रक्षेत्रज्ञ-सयोगात् ( भवति इति) विद्धि ( जानीहि ) ॥ २७ ॥
अनुवाद। हे भरतर्षभ ! जितना कुछ स्थावर, जंगम सत्त्व उत्पन्न होता है, वह सबही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे होता है, जानना ।। २७ ॥ .. व्याख्या। वह जो क्षेत्रज्ञ स्वरूप ईश्वरको (प्रकृतिका बाड़ा काटकर ) असीम करनेका साधन कहा गया, जिसमें मरधर्म ( जन्म-मृत्यु) नाश करके अमरत्व मिलता है, उसका अति सूक्ष्म तत्त्व (प्रधान साधन ) है क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका संयोग समझ लेना। हे भरतर्षभ ! हे अर्जुन ! जबतक स्थावर (अचल पदार्थ ) जंगम ( जो चलता फिरता है ) इन दोनों प्रकारके कल्पित अवस्तु । भनित्य मिथ्या ) में नित्य, सत्य, ज्ञान करानेका भ्रम रहेगा, अर्थात् क्षेत्र (प्राकृतिक व्यापार )
और क्षेत्रज्ञ (ब्रह्ममें मायाका बाड़ा, जो कल्पनाके बाहर, जो परस्पर विपरीत और अत्यन्त भिन्न हैं ) इन दोनोंका भेद परिज्ञान न होवेगा, तबतक क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोग बना है, जानना। स्वप्नमें हाथी, घोड़ा, भूत, प्रेत देखनेका भय जैसे जाग्रत होनेसे नहीं रहता, तैसे ब्रह्मज्ञानके उदय होनेसे ब्रह्मवस्तुमें मायाका बाड़ा पड़नेका भ्रम नहीं रहता। प्रकृति, प्रकृति-विकृति, विकार और पुरुष अवस्थाको बार बार विश्लेष करते करते (घोरतर अभ्याससे ) वह क्षेत्रक्षेत्रज्ञ-संयोग भ्रम कट जाता है। पुनर्जन्मका बीज भी मिट जाता है। इसीको तुम्हारी मुक्ति