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श्रीमद्भगवद्गीता भगवान् साधनके क्रम अनुसारसे साधकका क्रमिक अधिकार भेद दिखला करके आत्मदर्शनका उपाय समूह इन दो श्लोकोंमें कहते हैं।]
यथाशास्त्र श्रीगुरुदेवके पास उपदेश ले करके साधनमें अग्रसर होते होते जब सुषुम्नामें प्राणचालनकी शक्ति सरल हो जावेगी, तब १७२८ बार चातुर्थिक प्राणायाम करनेसे ही विषय और इन्द्रियोंसे मन उठकर बुद्धिमें पड़ करके आत्म-साक्षात्कार कराय देवेगा। यह जो आत्मसाक्षात्कार करनेका क्रम है, इसको ध्यान कहते हैं। इस प्रकार करते करते जब साधककी विषयमुखी वृत्ति प्रवाह एकदम आयत्ताधीन होगी, तब इच्छानुसार उस प्रवाहको प्रकृतिकी ग्लानिसे अलग करके तैलधारावत् अविच्छिन्न भावसे पुरुषमें फेंक कर निरन्तर स्थिति ली जा सकती है। यह एक प्रकारको साधन है। इसमें भी मात्मामें स्थिति और संसार-अवस्थाका निरोध होता है। [इस प्रकार साधनका पूर्व अंग सांख्ययोग अर्थात् ज्ञानयोग है और सांख्ययोगका पूर्व अंग कर्मयोग है। इसलिये श्रीभगवान इसके बाद ही सांख्ययोग तथा कर्मयोगका उल्लेख किये हैं। सिद्धयोगीगण इनमेंसे अपनी इच्छानुसार किसी एकका अवलम्बन करके आत्मदर्शन करते हैं; परन्तु अभ्यासीको पर पर क्रम अनुसारमें ही उठ करके सिद्ध होना पड़ता है।
और एक साधन वस्तुविचार है। इस विचारमें प्रकृति, प्रकृतिविकृति और विकार सब "तन्न तन्न” करके त्याग होते होते, अर्थात् तत्वसमूहके भीतर “यह प्रात्मा नहीं, वह आत्मा नहीं, सो आत्मा नहीं है", इस प्रकारसे जो कुछ परिणामी है, सबको अलग करते करते शेष सिद्धान्तमें एक अपरिणामी, नित्य, सत्यका साक्षात्कार होता है, तथा गणनामें ( गिन्तिमें ) परिणामी वस्तुसमूह चतुर्विंशति संख्यक होते हैं इस कारण इसको सांख्ययोग कहते हैं।