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श्राम
श्रीमद्भगवद्गीता ही आप ब्रह्ममें परिलीन होते हैं इस करके, ब्रह्म प्रकृतिका भोक्ता है, यह मिथ्या अपवाद प्रकाश किया हुआ है।
सामने यह जो अति दुर्बोध्य प्रकाण्ड विश्वकोष देखते हो, जिसकी सीमा करना मानुष-अन्तःकरणके असाध्य है, यह समस्त ही प्रकृति विकृति और विकार है। पुनः जिसके कार्यकारण-व्यापार मात्र ही यह विश्व है, वह प्रकृति खुद आप कितनी बड़ी है इसकी धारणाका
आभास भी इस क्षुद्र हृदयमें नहीं आता। सबसे बड़ी कह करके प्रकृतिको महान कहा है। जिसे आश्रय कर के प्रकृति देवी इस रचनामालाकी अधीश्वरी हुई है, वही पुरुष इसके ईश्वर होनेके कारण उस पुरुषका नाम "महेश्वर" है।
"परमात्मा" (पर शब्दमें श्रेष्ठ, और अम् कहते हैं केवलको) अर्थात् जो केवल, श्रेष्ठ और आत्मा है । "आत्मा शुद्धः स्वयंज्योतिरविकारी निराकृतिः”। तभी हुआ, जो केवल (अकेला ) श्रेष्ठ, शुद्ध, स्वयंज्योति, अविकारी और निराकृति है, वही परमात्मा है।
हे अर्जुन ! प्रकृति के कार्यकारण स्वरूप इस देहके साथ संस्रकदोषसे दूषित हो करके ही पुरुष प्रोक्त विशेषण समूहसे आभूषित हुआ है। ऐसा न होकर यह खुद जो है, विश्लेषणमें वह भी तुम्हें समझना बाकी नहीं है। यह तुम्हारी प्रकृति, प्रकृति-विकृति, विकार और पुरुष है। लो देख लो ॥ २३ ॥
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिञ्च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ २४ ॥ अन्वयः। यः पुरुष एवं ( उपद्रष्टत्वादिरूपेण ) वेत्ति, प्रकृतिं च गुणैः सह (सुखदुःखादिपरिणामैः सहित ) वेत्ति, सः सर्वधा ( सर्व-प्रकारेण ) वर्तमानोऽपि भूयः ( पुनः ) न अभिजायते (देहान्तरं न गृह्णाति, मुच्यते एवेत्यर्थः) ॥ २४ ॥
अनुवाद। जो इस प्रकारसे पुरुष को और गुणों के साथ प्रकृतिको विदित होता है, वह सर्व प्रकारसे वर्तमान रह करके भी पुनर्जन्म ग्रहण नहीं करता ॥ २४ ॥