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त्रयोदश अध्याय
१६१ निकट रहनेसे प्रकृतिका किसीके साथ संस्रव न रखनेसे भी कल्पनामें पुरुषके हक शक्तिके सामने जैसे प्रकृतिका कार्य-कारण व्यापार सम्पन्न होता है, इसलिये (चाहे पुरुष देखे या न देखे ) उसको उपद्रष्टा कहते हैं। __ वह फूलकी पुतली उस कृषकके कृषिजात जो कुछ जड़ी बूटी रक्षा करनेवाले कार्यमें (कुछ न करके भी) अनिष्ट करनेवाले जन्तुओंको भगाकर कृषकके काम काजका अनुमोदन करती है; इसलिये "अनुमन्ता" है। उसी तरह प्रकृतिके कार्य-कारण-व्यापारमें पुरुषका कोई संस्रब न रहनेसे भी, प्रकृतिके बाड़ेमें पुरुषको घेर लेकर जड़में चैतन्य संक्रमणकी कल्पना कराकर आप ही आप प्राकृतिकी क्रियाका प्रकाश होने लगे, इसलिये पुरुष प्रकृतिका "अनुमन्ता" हुआ। __ पृथ्वोसे एक लक्ष योजन दूरान्तर ऊपरमें सूर्य रहता है, और पृथ्वी पर तालाबके जलमें पद्म है । प्रभात काल में सूर्य उठनेसे कमल खिलता है, और सूर्यास्तमें मुदित होता है, इस कारण कवि जैसे उस सूर्यके साथ कमलका पति-पत्नीत्व भावका आरोप किये हैं, उसी तरह प्रकृति नाम करके अनित्य, अज्ञानता, मिथ्या भ्रमको स्त्री सजा करके, नित्य, सत्य, सनातन, ब्रह्ममें पुरुष-शब्दका आरोप करके कल्पनाके जोरसे दोनोंके साथ विवाह देकर पुरुषको भर्ता बनाया है। जगत् भ्रमका घर है। भ्रमके घरके भ्रम-संसारमें भ्रम-कल्पनाकी ही प्रतिपत्ति है। इसलिये काल्पनिक प्रकृतिके कल्पित पुरुषमें कल्पित भर्ताका आरोप जानना। सत्य ही मिथ्याको पोषण करता है । सत्य है ब्रह्म, और प्रकृति मिथ्या है। इसलिये ब्रह्म प्रकृतिका "भर्ता" है। __ “भोक्ता" भुज भोजन करना +7 (तृण) = (कर्तृवाचक शब्द) अर्थात् जो भोजन करता है। सूर्योदयमें अंधियारा जैसे आपही आप मिट जाता है, तैसे ब्रह्मज्ञानके उदयमें प्राकृतिक भ्रमजाल आप
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