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त्रयोदश अध्याय .
१५६ पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भूङक्ते प्रकृतिजान् गुणान् ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ २२॥ अन्वयः। हि ( यस्मात् ) पुरुषः प्रकृतिस्थः ( अविद्यालक्षणायां कार्यकारणरूपेण परिणतायां प्रकृतौ तादात्म्येन स्थितः ) [ तस्मात् ] प्रकृतिजान् गुणान् ( सुखदुःखादीन् भूङ क्ते ; अस्य ( पुरुषस्य ) सदसद्योनिजन्मसु (सदसद्योनिषु सतीषु देवादियोनिषु असतीषु तीर्यगादियोनिषु यानि जन्मानि तेषु ) गुणसंगः ( गुणैः शुभाशुभकर्मकारिभिरिन्द्रियः संगः ) कारणं ( हेतु ) ॥ २२ ॥
अनुवाद। प्रकृतिस्थ होनेही के कारण पुरुष प्रकृति जात गुण समूहका भोग करते हैं, पुरुषको सदसद् योनिमें जो सब जन्म हैं उस विषयमें गुणसंग ही कारण है ॥ २२॥
व्याख्या। असीमके भीतर ससीमका कार्य-कारण रूप परिणति में ( बदलाईमें ) जैसे अरूप आकाशमें गभीरता हेतु हकशक्तिकी दुर्बलताके कारण अति दूर में जो नीलिमा रूपकी भ्रम कल्पना आती है, वह जैसे कभी भी सच्चा नहीं है; तैसे ही छिद्रशून्य (ठोस ) असीम ब्रह्म वस्तुमें, अबस्तु स्वरूप ससीम प्रकृतिको उपस्थिति मिथ्या ही मिथ्या भ्रममात्र है। इसमें कुछ भी सच्चा नहीं है। और वह भ्रम बोधनका जो प्रलाप है, वह प्रलाप ही "पुरुष” और पुरुषके "प्रकृतिस्थ" होना है। उस प्रकार प्रलापसे उत्पन्न सुख दुःख मोहाकारा वृत्तिमें "मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूँ, मैं मूढ़ हूं, मैं पण्डित हूं" इस प्रकार भाव वा (चिन्ता ) करेगा घोर बिकारग्रस्त रोगियोंकी प्रलाप सदृश ब्रह्मको काटकर छिन्न-भिन्न करके पुरुष बनाकर भोक्ता साज सजाय लेना। यही है तुम्हारा निर्गुणको गुणके साथ मिला करके गुणका भोक्ता कह करके अपवादमें फंसा लेना। जैसे शिशिर कालके सबेरे (प्रभात) में जौके पौधेके ऊपर शिशिर बिन्दुमें सूर्यकिरण पड़के नाना रंगके रूप दिखा देता है अर्थात् सूर्य-गतिके साथ ही साथ शिशिर बिन्दुमें जैसे अनेक प्रकारका रंग देखा जाता है, परन्तु शिशिरबिन्दुमें जैसे कोई