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त्रयोदश अध्याय
१५७. रहता। यह माया जड़, अवस्तु है; और ब्रह्म चैतन्य-स्वरूप वस्तु है। गाढ़ सहवास करके जब इस अवस्तुमें वस्तुत्व बोधनरूप भ्रमज्ञान आ पड़ता है ( जैसे आदर्श=आयनेमें शरीर छाया ), तबही माया ब्रह्मसाज सज बैठती है, अर्थात् अपनेको नित्य-सत्य-निर्विकार रूपसे समझा देती है। यह जो माया की विपरीत सज्जा है, यही प्रकृति है । यह प्रकृति जब बढ़ जाती है, तबही अपने पेटके भीतर ब्रह्मको भर लेती है, जैसे गोष्पदके जलमें आकाश, अथवा महाकाशमें प्राचीर देकरके छत् छाह करके घर बनाया जाता है। प्राचीर छत् और घरके नीचे वाली जमीन मिलकर हुआ पुर, और उस पुरके गर्भके भीतर वाला शून्य पुरुष हुआ। समुद्रका खारी जल जैसे तेज, वायु और महान् आकाशके संग गुणसे अपना लवणत्य त्याग करके निर्मल, तृप्ति कर लोक-जगत्के जीवन रूपसे पृथिवीमें उतरता है, उसो प्रकार अतिक्षुद्र नीच प्रकृतिके सहवास दोषसे पुरुष भी जीव नाम लेके आत्महारा होकर प्रकृति सज बैठते हैं, इसलिये इनको पराप्रकृति कहते हैं । क्योंकि, यह निष्क्रिय हो करके भी संग दोषके लिये भोक्तत्व अभिमान लेनेका अपवाद ( न लेकरके भी ) ले लेते हैं। "संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति” । इस कारणसे प्रकृति पुरुष दोनों ही अनादि हैं । और प्रकृतिमें ही समस्त विकार तथा गुणोंको कल्पना समझ लो ॥२०॥
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखाना भोक्तत्वे हेतुरुच्यते ॥ २१॥ अन्वयः। कार्यकारणकत्त 'त्वे ( कार्य शरीरं कारणानि सुखदुःख-साधनानीन्द्रियाणि तेषां ऋत्त त्वे तदाकारपरिणामे ) प्रकृतिः हेतुः उच्यते, पुरुषः ( जीवः क्षेत्रज्ञः) सुखदुःखानां ( भोग्यानां ) भोक्त त्वे ( उपलद्ध त्वे ) हेतुः उच्यते।
[ पुरुषसन्निधानात् अचेतनायाः प्रकृतेः कत्त त्वमुच्यते, भोक्त त्वं च सुखदुःखसंवेदनं तच्च चेतनधर्म एवेति प्रकृतिसन्निधानात् अविकारिणों पुरुषस्य भोक्त त्वमुच्यते ] ॥ २१॥