________________
त्रयोदश अध्याय
- १६५ और एक साधन है। दुर्बलचित्त मानव जगत्में अपने लिये जो कुछ काम काज करता है, उसे वह “अपने लिये करता हूं" यह बोध विचार न करके "मैं ईश्वर-प्रेरित हूँ ईश्वरकी इच्छासे जो कुछ काम काज करता हूँ, भला हो चाहे बुरा हो वह सब ईश्वरका है" इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके सम्मुखमें सदाकाल अविच्छिन्न भावसे ईश्वरको बैठा करके तम्मुखी, तन्मयी वृत्ति द्वारा उस ईश्वरमें मिल करके काल काटने को कर्मयोग कहते हैं। यह बाहरका है और वह पहले वाला भीतर का है ॥ २५ ॥
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्यः उपासते। ...
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्यु श्रुतिपरायणाः ॥२६॥ अन्वयः। अन्ये तु एवं (सांख्ययोगादिमार्गेण उपद्रष्टुत्वादि-लक्षणमात्मानं साक्षात् कत्त) अजानन्तः अन्येभ्यः (आचार्येभ्यः) श्रुत्वा उपासते ( ध्यायन्ति) तेऽपि च श्रुतिपरायणा: ( श्रद्धया उपदेश-श्रवणपरायणाः सन्तः ) मृत्यु ( संसारं ) अतितरन्ति एव ।। २६ ॥
अनुवाद। परन्तु दूसरे कोई कोई इस प्रकारसे (सांख्ययोगादिया में उपद्रष्ट त्वादि लक्षण आत्माको साक्षात् करने के लिये ) न जान करके दूसरेके पास ( आचार्यके पास ) सुन करके आराधना करते हैं ; वे लोग भी उपदेश श्रवणपरायण होकरके मृत्युको अतिक्रम करते हैं ।। २६ ॥
व्याख्या। ऐसे अनेक साधक हैं जिनमें जड़ता अधिक और सूक्ष्मतत्व निर्णय करनेकी शक्ति कम है। वे लोग सांख्ययोगादि मार्ग में आत्माका स्वरूप साक्षात्कार नहीं कर सकते। वे सब दूसरेके पास अर्थात् आचार्यों के मुखसे उपदेश श्रवण करके उपासनामें प्रवृत्त होते हैं। वह पर-उपदेश ही उन सबके प्रमाण है, क्योंकि वे सब आप विवेकर हित हैं। परन्तु क्रम अनुसार वे सब भी मृत्युयुक्त संसारको अतिक्रम करते हैं । क्योंकि श्रद्धाके साथ वह उपदेश सुनते सुनते धीरे