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श्रीमद्भगवद्गीता अद्भुत व्यापार प्रकाश होता है; प्रकृतिके जितने कृतित्व हैं, सब एक स्थानमें इन्द्रजालके सदृश खिलते हुये बाहर निकल आते हैं। सृष्टि की सीमा नहीं है। यथास्थानमें कमलासन पर सृष्टिके ईश्वर ब्रह्मा, देवतासमूह, ऋषिकुल, सर्पकुल, अवस्थित हैं, ये सबही आकाशके आकारधारी विकार हैं। (साधक ! होशियार हो करके अपने कूटस्थके दृश्य समुदयसे इसे मिला लो ) ॥ १५ ॥
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् । नान्तं न मध्यं न पुनस्लवादि
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥ १६ ॥ अन्वयः। हे विश्वेश्वर ! हे विश्वरूप ! अनेकबाहूदरवक्त नेत्रं अनन्तरूपं त्या सर्वतः ( सर्वत्र ) पश्यामि तव पुनः न अन्तं न मध्यं न आदि पश्यामि ॥१६॥ - अनुवाद। हे विश्वेश्वर । हे विश्वरूप ! अनेक बाहु उदर मुख नयन युक्त और अनन्त रूप सम्पन्न तुमको सर्वत्र देखता हूँ; पुनः तुम्हारा न अन्त न मध्य न आदि देखता हूँ॥ १६ ॥ - व्याख्या। कितनेही उदर, कितनेही हाथ, कितनेही मुख कितने ही चक्षु देखता हूँ, उनका और अन्त नहीं है। दशो दिशामें देखता हूँ; किसी दिशामें भी आदि, अन्त, मध्य ठीक नहीं कर सकता हूं। हे विश्वेश्वर ! यह क्या तुम्हारा विश्वरूप है ! ॥ १६ ॥ .
किरीटिनं गदिनं चक्रिणच .
तेजोराशिं सर्वतो दोप्तिमन्तम् । पश्यामि त्वां दुनिरीक्ष्यं समन्ता
दीप्तानलार्का तिमप्रमेयम् ॥ १७ ॥ अन्वयः। किरीटिनं ( मुकुटवन्तं ), मदिनं ( गदावन्तं ), चक्रिणं च ( चक्रवन्तं च ), सर्वतः दीप्तिमन्तं तेजोराशि ( तेजपुखरूपं ), दुनिरीक्ष्यं ( द्रष्टुमशक्यं ),