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प्रयोदशोऽध्यायः
__अर्जुन उवाच। प्रकृति पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञयं च केशव ॥१॥ अन्वयः। अर्जुन: उवाच । है केशव ! प्रकृति पुरुषं च एव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञं एव च, ज्ञानं ज्ञेयं च, एतत् वेदितु इच्छामि ॥१॥
अनुवाद। अर्जुन कहते हैं । हे केशव ! प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय इत्यादि को जानने की मैं इच्छा करता हूँ ॥१॥
व्याख्या। साधक देखते हैं कि, यह जो आत्मामें आत्माके . मिलानेकी चेष्टा है, जिसे मैं ने 'भक्तियोग' कहकर समझा है, इसमें कुछ वृत्तियां इसके अनुकूलमें और कुछ प्रतिकूलमें खड़े हो जाते हैं। किन्तु इन दोनों प्रतिकूल, अनुकूल वृत्तियोंकी आश्रयभूमि वा आधार एक ही है। जबतक इनके आधारको समूल नष्ट न किया जायेगा, तबतक आत्माके साथ आत्माके मिलानेका स्थायी फल पाना केवल दुराशा मात्र है। वह जो आधार सर्वसमष्टि-शक्ति रूपसे रहती है, वह भी और एक दूसरेकी श्राधेय है। सर्वकरणीय शक्ति हो करके भी एक "सत्ता" के निकट अधीनता स्वीकार करके यह अपना अस्तित्व बनाय रखती है। वह सत्ता इस महाशक्तिका ऐसा कोई अणु वा परमाणु नहीं है जिसमें ओतप्रोत भावसे नहीं रहता। ( जैसे ईट, पत्थर, बर्तन और घरके भीतर आकाश है )। उस सत्ताका वह जो ओतप्रोत भाव है, वही इस महाशक्तिकी चेतन-विधाता है। यह जो दोनों परमाराध्य परमार्थ एक रूपसे हमारे सम्मुखमें खड़े रहते हैं इनके बीचमें प्रकृति और पुरुष कौन है ? क्षेत्र अथवा क्षेत्रज्ञ भी कौन