________________
१५२ . श्रीमद्भगवद्गीता इन्द्रियादिका कोई चिह्न नहीं रहता; इसलिये सर्वेन्द्रिय-विवर्जित, अथच इन्द्रियादिके गुण, शक्ति और सत्ताका आभास नाम लेकरके, सबका आधार और पोषक कारण हो करके विस्तारमें मिलकर रह गये। इस अवस्थामें किसी गुणकी क्रिया नहीं है (क्योंकि, यह गुणातीत अवस्था है ); अतएव सर्व संस्रव वर्जित है। किसो स्थानमें गुणोंकी क्रिया होनेसे, गुण क्रिया इस विस्तारके भीतर ही होती है इसलिये लोक-जगतमें बातकी बातमें गुणों के पालक हो गये हैं ॥१५॥
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ १६ ॥ अन्वयः। ( तत् ) भूतानां बहिः अन्तश्च, अचरं (स्थावर ) चरं एव च (जंगम); सूक्ष्मत्वात् ( रूपादिहानत्वात् ) तत् अविज्ञ यं; तत् दूरस्थं च ( अविदुषां योजनलक्षान्तरितमित्र दूरस्थं सविकारायाः प्रकृतेः परत्वात् ) अन्तिके च ( विदुषां पुनः प्रत्यगात्मत्वात् नित्यसन्निहितं ) ॥ १६ ।।
अनुवाद। भूत समूहके बाहर भी वही, भीतर भी वही, स्थावर भी वहो, जंगम भी वही; सूक्ष्मत्वके लिये तत् अविज्ञ य है; तत् दूरस्थ भी है, तत् निकट में भी है।। १६ ॥
व्याख्या। अत्यन्त सूक्ष्मताके लिये भूत मात्रके भीतर बाहरमें यह तद् ब्रह्म एक रससे समान स्थित है। इसलिये चर और अचरके भीतर बाहरमें वह तत् रहे हुए हैं। जो लोग सूक्ष्मदर्शी हैं, वे इस तत्के सूक्ष्मत्वमें सर्वदा लीन रहनेसे यह "तत्” उनके निकट है; परन्तु, स्थूलदर्शी लोग इस वचनका अर्थ कुछ भी समझ नहीं सकते, इसलिये वह उन लोगसे दूर भी है ॥ १६ ॥
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं असिष्णु प्रभविष्णु च ॥ १७ ॥ अन्वयः। भूतेषु (स्थावरजंगमात्मकेषु ) अविभक्त कारणात्मना अभिन्न ) विभक्तमिव च ( कार्यात्मना भिन्न मिव ) स्थितं च तत् ज्ञयं भूत्भतृ च (स्थिति