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त्रयोदश अध्याय काले भूतानां पोषक ) ग्रसिष्णु ( प्रलयकाले च ग्रसनशील ) प्रभविष्णु च ( सृष्टिकाले च नानाकार्यात्मना प्रभवनशीलं ) ॥ १७ ॥
अनुवाद। अविभक्त और विभक्त रूपसे भी भूत समूहमें अवस्थित है; वही ज्ञेय पदार्थ ( स्थितिकालमें ) भून समूहके पोषक, ( प्रलयकालमें ) ग्रास करनेवाला, ( सृष्टिकालमें नाना कार्य्यरूपसे ) उत्पत्तिशील है ॥ १७ ॥
व्याख्या। आकाशमें धूआ उड़नेसे आकाश व्यापी धूआ दिखाई देता है सही, परन्तु धूएमें और आकाशमें जैसे संगति (मिलावट) नहीं होता तैसे भूतोंके साथ और वह ऊपर वाले विस्तार अवस्थाके साथ अज्ञानियोंके दृष्टि में एकत्र भाव प्रत्यक्ष होनेसे भी यथार्थतः ज्ञानीके चक्षुमें वह एकत्र भाव मिल नहीं जाता, सर्वदा अलग ही रहता है। जसे एक मायाके तीन गुण, रजोगुणकी क्रिया कालमें ब्रह्मा बनकर उत्पत्ति. सत्वगुणके क्रिया कालमें विष्णु बन कर पालन और तमोगुणके क्रियाकालमें हररूपसे संहार दिखला देनेसे भी तीन गुणके विश्राम कालमें इन सबका कुछ भी नहीं रहता, केवल (मठ) एकदम बातकी बातमें गुथा हुआ (जैसे सिपीमें चाँदी, डोरीमें सर्प, मृगतृष्णामें जलज्ञान भ्रम ही भ्रम ) है, उसी प्रकार जानो ॥ १७ ॥
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ।। १८ ॥ अन्वयः। तत् ज्योतिषां अपि ज्योतिः ( सूर्य्यादीनामपि प्रकाशकं ), अतएव तमसः (अज्ञानात् ) परं ( तेनासंस्पृष्ट) उज्यते; ( तदेव ) ज्ञानं ज्ञयं (बुद्धिवृत्तौ रूपाद्याकारेण अभिव्यक्त), ज्ञानगम्यं ( अमानित्वादि लक्षणेन. पूर्वोक्तज्ञानसाधनेन प्राप्यं ), सर्वस्य (प्राणिमात्रस्य ) हृदि विष्ठितं (विशेषेण अप्रच्युतस्वरूपेण नियन्तृतया स्थितं ) ॥ १८॥
अनुवाद। वह सूर्यादि ज्योतिः समूहके भी ज्योतिः (प्रकाशक ), और तमः