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श्रीमद्भगवद्गीता से पर ( अज्ञानतासे असंस्पृष्ट ) कह करके उक्त है; ( वही तत् ) ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञानगम्य तथा सर्व प्राणियोंके ह्रदयमें नियन्तृ रूपसे अवस्थित है ॥ १८ ॥
व्याख्या। ज्योतिष कहते हैं चन्द्र-सूर्य-अग्निको, जिन सबके ज्योतिसे चर्म चक्षुके हक शक्तिका आंधियारा मिटाकर अच्छी तरह दिखाई देता है। और एक ज्योतिष है ज्योतिष-विद्या, जिसमें अंक पातसे जिस किसीका सिद्धान्त फल जाना जाता है। और एक ज्योतिष निजबोधको कहते हैं [जैसे बालपनमें कितनोंके साथ खेल किये थे, अब बुढ़ापा आया, वह देश नहीं, वह काल नहीं, वह पात्र भी नहीं, तथापि स्मृतिमें वह सब जैसे ( अभी कर आया हूँ, ऐसा प्रत्यक्ष देखता हूँ; तैसे )] जिससे भूत भविष्यत्को वर्तमान सदृश प्रत्यक्ष करा देता है। यह कई प्रकारके ज्योतिष ही उस पूर्वोक्त "तत्" के आधेय हैं। इसलिये "तत्” ज्योतिषमानोंकी भी ज्योति है । यह "तत्" अज्ञानान्धताके परपारमें चिरस्थित है। ज्ञानकी चरम अवस्था के बाद ही यह "तत्" है; जाननेकी वस्तु भी यही “तत्" है। ज्ञानसे इस "तत्” में पड़ करके ही चिरशान्ति लेनी होती है। सब शब्दके अर्थमें जो समझा जाता है उसीके हृदयमें अर्थात् उसके भीतर में, और असीमताके लिये उन सभोंके बाहरमें भी परिपूर्ण रहे हैं। सर्व "तत्" के गर्भ में इस प्रकार स्थित है जैसे आकाशके गर्भ में पृथिवी ॥ १८ ॥
इति क्षेत्र तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १६ ॥ अन्वयः। इति ( एवं ) क्षेत्रं ( महाभूतादिधृत्यन्तं ) तथा ज्ञानं ( अमानित्वादि तत्वज्ञानार्थदर्शनपर्यन्तं ) ज्ञेयं च (अनादिमत्परं ब्रह्मत्यादि विष्ठितमित्यन्तं ) समासतः ( संक्षेपेण ) उक्त ( मया इति शेषः ), मद्भक्तः विज्ञाय मद्भावाय ( ब्रह्मत्वाय) उपपद्यते ( योग्यो भवति ॥ १९॥
अनुवाद। इस प्रकारसे क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय संक्षेपसे कहा गवा हैं। मेरे भक्त , यह सब जान कर मद्भाव प्राप्तिके योग्य होते हैं ।। १९ ।।