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श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। क्षेत्रज्ञका प्रभाव जाननेसे अमृतत्व लाम होता है। वह क्षेत्रज्ञ ही ज्ञेय पदार्थ है। ज्ञेय सम्बन्धमें भगवान् "शेयं यत्तत् प्रवक्ष्यामि” इत्यादि वाक्यसे पश्चात् कहेंगे। ज्ञेय पदार्थको जानना हो तो ततूज्ञानसाधन श्रमानित्व इत्यादि गुण प्रयोजनीय है। उसी अमानित्वादि गुणोंको ही भगवान्ने ज्ञानसाधनत्व हेतु ज्ञान कहकर निहेश किया है । वे सब ये हैं___ "अमानित्व”। -सम्भ्रमको मान कहते हैं। सं सम्यक् भ्रम जो कुछ है, वही सम्भ्रम वा मान है। आप जो नहीं है अपनेको वही मान लेनेका नाम मान है। उस सम्यक भ्रम वा मान लेने में जब "अ" पहिले लग जाता है, तब यह मान लेनेका वा सम्यक् भ्रमका अर्थ दूर हो जाता है; और उसका अर्थ दूसरा हो जाता है। तदनुसार अवस्थामें सर्वदा रहनेका नाम अमानित्व है। "अदम्भित्व"। - दम्भ कपटताको कहते हैं अर्थात् हम जो नहीं हैं, उसका भान ( बड़ाई ) दिखाकर लोगोंको ठग लेने का नाम दम्भ है। सर्वदा उस प्रकार चेष्टाशून्य अवस्थामें रहनेका नाम 'अदम्भित्व' है। "अहिंसाअन्तःकरणमें अनिष्टकर वृत्तिके उदय न होनेका नाम “अहिंसा” है। "क्षान्ति”। -प्रतिविधान करनेवाली शक्ति रहते हुए भी कृतापराधके ऊपर जो क्षमा की जाती है, उसे ही शान्ति कहते हैं। "आजव"सरलताको कहते हैं। उपदेष्टाकी शुश्रषामें रत रहनेका नाम "आचार्योपासना” है। “शौच"-मनके मैलको त्याग करके शुद्ध करनेको कहते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पांचों विषय और अविद्या, अस्मिता, राग, द्वष और अभिनिवेश इन पांच क्लेशोंको मनका मैल कहते हैं । जलसे शरीरके ऊपरका मैल धोनेका नाम भी शौच है, एवं शुची होनेको भी शौच कहते हैं। और मनके स्थिर अवस्थामें किसी वृत्तिका उदय न होकर जो निर्विकार स्थिति भोग होती है, उसे भी शौच कहते हैं । उद्वगके कार्यकाल में भी अचचल