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त्रयोदश अध्याय
१४१ प्रभावश्च ( अचिन्त्यैश्वर्ययोगेन येः प्रभावः सम्पन्नः ) तत् ( सर्व ) समासेन ( संक्षेपतः ) मे ( मम वाक्यतः ) शृणु ॥ ४ ।।
अनुवाद। वह क्षेत्र कौन है, केसा है, कितने बिकारसे युक्त है, किससे उत्पन्न है, एवं किस प्रकार है, और वह (पुरुष) कौन तथा किस किस प्रभावयुक्त है उसे संक्षेपमें मुझसे सुनो ॥ ४ ॥
व्याख्या। ऊपर वह जो क्षेत्र कहा गया है, वह शरीररूपी क्षेत्र स्वरूपतः जिस प्रकार जड़ दृश्यादि स्वभाव-सम्पन्न, जिस प्रकार इच्छादि धर्मयुक्त, जो जो इन्द्रियादि विकारयुक्त, जैसे प्रकृति पुरुषके - संयोगसे उत्पन्न और जिस प्रकार स्थावर जङ्गमादि भेदसे विभिन्न है, और वह क्षेत्रज्ञ, वह सत्सत्ता, जिनके महिमा कणसे वह असतू क्षेत्र सत् सज करके खेल करता है वह भी जो है, तथा जिस प्रकार प्रभाव युक्त है; उसे संक्षेप में कहता हूँ, सुनो ॥४॥
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥५॥ · अन्वयः। [ तत् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्याथात्म्यं ] ऋषिभिः ( वशिष्ठादिभिः ) बहुधा ( बहुप्रकारं ) गीतं ( कथितं ), छन्दोभिः (छन्दांसि ऋगादीनि तैमन्त्रच्छन्दोभिः ) विविधैः ( नानाप्रकारः ) पृथक् ( विवेकतः ) गीत; हेतुमद्भिः ( युक्तियुक्तः) विनिश्चितैः ( असन्दिग्धार्थप्रतिपादकः ) ब्रह्मसूत्रपदः ( ब्रह्मणः सूचकानि बाक्यानि ब्रह्मसूत्राणि तैः पद्यते गम्यते ज्ञायते ब्रह्म ति तानि तः) एव च क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्याथात्म्यं गोतमिति अनुवर्तते ॥ ५॥ - अनुवाद। ( उस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका यथार्थ तत्व ) ऋषियोंके द्वारा बहु प्रकारसे गीत ( कथित ) हुआ है, ऋगादि वेद समूहके द्वारा विषिध प्रकारसे पृथक् गीत हुआ है, और युक्तियुक्त निश्चितार्थ-प्रतिपादक ब्रह्मसूत्रपद समूहके द्वारा भी गोत हुआ है।॥५॥
व्याख्या। क्षेत्र क्षेत्रज्ञके सम्बन्धमें वशिष्ठादि ऋषियोंने बहुत प्रकारको वर्णना की है, ऋगादि वेदमें भी नाना प्रकारको वर्णनाकी है,