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श्रीमद्भगवद्गीता इस श्लोकमें "मल्पराः" शब्दसे अनाहत ध्वनि अवलम्बन अर्थात् योगशास्त्रके मतमें क्रियायोगकी "श्रवण" क्रिया समझाता है; "मां ध्यायन्तः” से “मनन" ( मनोलय) क्रिया समझाता है; और "उपासते” शब्दसे "निदिध्यासन" (आत्म-स्वरूपावस्थान) क्रिया समझाता है। गुरूपदेश अनुसार साधक इन तीन क्रियामें सिद्धिलाभ करनेसे ही संसारसे उत्तीर्ण होने के लिये उनको और देर रहता नहीं; शीघ्रही मृत्युको अतिक्रम करके जीवनन्मुक्त होते हैं ॥ ६ ॥७॥
मय्येव मन आपत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊवं न संशयः ॥८॥ अन्धयः। मयि एव मनः ( संकल्प विकल्पात्मकं ) आधत्स्व ( स्थिरी कुरु), बुद्धिं ( व्यवसायात्मिकाम् ) मयि निवेशय, अत: ऊर्ध्व ( देहान्ते ) मयि एव निष. सिष्यसि ( मदात्मना वासं करिष्यसि ), ( अत्र ) संशयः न ( अस्ति ) ॥ ८॥
अनुवाद। हमहीमें मनस्थिर करो, हममें बुद्धि निवेश करो, तो देहान्त पश्चात् हममें ही निवास करोगे, इस विषयमें संशय नहीं ॥ ८॥ .
व्याख्या। अतएव ऐसे 'मैं' में मनको फेंको, ऐसे 'मैं' में बुद्धिको निवेशित कर दो, ऐसा करनेसे तुमको फिर माया-विकार छू नहीं सकेगा, इसमें संशय न करो, तुम ऊंचे हो जावोगे, अर्थात् जबतक. तुम शरीर धारण कर रहोगे तबतक आज्ञाके ऊपर आत्मभावमें
आत्मस्थ (जीवन्मुक्त) होकर रहोगे, और नीचे में उतर कर प्रकृतिगत होकरके बद्ध होना नहीं पड़ेगा; और शरीर-पतनके पश्चात् ठीक ठीक 'मैं हो जावोगे ॥ ८॥
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तु धनञ्जय।। ६॥ अन्वयः। हे धनब्जय। अथ (यदि ) चित्त मयि स्थिरं समाधान शक्नोषि, ततः ( तहिं ) अभ्यासयोगेन मा आप्तुं इच्छ ( प्रयत्नं कुरु ) ॥९॥
* मृत्युका अर्थ २य अः २७ श्लोक देखो।