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श्रीमद्भगवद्गीता होता। सुख और दुःख नामकी कोई वृत्ति भी नहीं रहती। सब समान हो जाते हैं; केवल क्षमा ही क्षमा, तोष ही तोष रह जाता है। पहले जो द्वैतभाव था, इस समय यह दोनों मिलकर एक हो जाते हैं
और द्वैताद्वैत विवर्जित की सी एक अवस्था आती है। और यही (अवस्था ) योगी अवस्था कहलाती है। इस अवस्थामें आत्माका अवधि-रहित विस्तार हो जानेसे जितने दृढ़ और निश्चयवाची अर्थ हैं, उनकी प्रतिष्ठा लाभ होती है। गुरुवाक्यमें अटल विश्वाससे साधन करनेसे जिसकी इस प्रकारकी अवस्था पाती है, वही हमारा प्रिय है; क्योंकि वह साधक 'मैं' को छोड़कर और कुछ नहीं है ॥ १३ ॥ १४ ॥
यस्मान्नोविजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोगमुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १५ ॥
अन्वयः। यस्मात् ( सकाशात् ) लोकः ( जनः ) न उद्विजते (भयशङ्कया क्षोभं न प्राप्नोति ), यश्च लोकात् न उद्विजते, यश्च हर्षामर्षमयोद्व गैः ( हर्षः स्वस्येष्ठलाभे उत्साहः, अमर्षः परस्य लाभऽसहन, भयं त्रासः, उद्व गो भयादि निमित्तचित्तक्षोभः एतः) मुक्तः यः स च मे प्रियः।। १५॥
अनुवाद। जिस साधकसे लोग उद्विजित नहीं होते और दूसरे लोगोंसे भी जो आप द्विजित नहीं होता, जो हष, अमर्ष, भय तथा उद्वेगसे विहीन है, वही हमारा प्रिय है ।। १५॥
व्याख्या। 'लोक" अर्थात् दृश्य यह जो कुछ है; उनके "मैं" हो जानेके पश्चात् द्रष्टा और दृश्य का सम्बन्ध मिट जाता है। इसलिये "मैं" से दृश्यका उद्विग्न अथवा दृश्यसे मेरे उद्विग्न होनेका अवसर नहीं आता। उद्व गसे अमर्ष, निरुद्व गसे हर्ष और प्रतिद्वन्दीसे भय उत्पन्न होता है। ये विकार जिसमें नहीं रहता, वही मेरा प्रिय अर्थात् “मैं” हूं ॥ १५॥