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श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। (अविवेक पूर्वक ) अभ्याससे ज्ञान श्रेष्ठ है; शानसे ध्यान विशिष्ट; ध्यानसे कम फलल्याग ( विशिष्ट ); ( इस प्रकारसे ) त्याग के बाद ही शान्ति होती है॥ १२॥
व्याख्या। अविवेक-जनित अभ्यासमें कठोरता है; परन्तु स्थिति नहीं विवेक-जनित ज्ञानमें निर्ममत्व, परन्तु स्थिति है। ये अभ्यास
और ज्ञान इन दोनोंके भीतर ध्यानको समझते जाओ तो इस प्रकार समझ आता है कि,-साध्य वस्तुमें मिल करके साधक तदाकारत्व लेकर एक हो जानेका नाम ध्यान है। इस ब्यानमें मिलन-सुख और मिलनके लिये प्रेमकी कोमलता दोनोंही वर्तमान हैं । इसमें कठोरता वा निर्ममत्व इन दोनोंका ही अभाव है। साध्य और साधक मिलकर जब एक हो गये, उस एकत्वके परिपाकसे कर्म और कर्मफल दोनों का ही विश्राम हुआ। वह कर्म-विश्राम ही त्याग है। त्याग होनेसे निरन्तर शान्ति होती है। यह शान्ति ही अमनस्क स्थिति वा ब्राह्मीस्थिति है। इसलिये कहता हूं कि अभ्याससे ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञानसे ध्यान श्रेष्ठ है, जिस ध्यानमें कठोरता भी नहीं, निर्ममत्व भी नहीं, तथापि त्याग-जनित सुखके साथ ज्ञानका फल शान्तिस्वरूप जो ब्राह्मी स्थिति है, उसे भी मिला देती है।
- २य अर्थ। साधक देखते हैं कि बिना सद्गुरुके चरण कमलमें मस्तक नवाय आपापन्थी बनकर योग-समाधिका अनुष्ठान करना बकरीके गले वाले स्तनोंसे दूध निकालनेकी चेष्टाके नाई निष्फल है; परन्तु गुरूपदिष्ट सामान्य ज्ञान ही साधनमें सुफल देता है। और क्रमशः यह ज्ञान ध्यानावस्थामें साधकको ले जाकर और भी श्रेष्ठत्व देता है। इसके बाद जब समाधि-अवस्था आती है, तब कर्म और कर्मफलका स्वर विश्राम हो जाता है। उसीको त्याग कहते हैं। और. उसी त्यागमें शान्ति विराजती है ॥ १२॥