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द्वादश अध्याय
१२५ साधकको 'मैं' में ला करके साधक और 'मैं' दोनोंका मिलन कराय देता है। तुम भी ढूढो, तुम्हारे भीतर वह अकम्पन नाद कहाँ है। उस नादमें तुम मनको फेंको, ( क्रिया गुरूपदेशगम्य है ); तब तुम अपनेको विषय, देहादि इन्द्रियों और अन्तःकरणसे समेट लाकर अलग करके ऐसे कोई एक जगहमें लाओगे जिसमें तुम अनुभव करोगे कि, "सकल” कहने से जो किसीको समझा जाता है, उन सबसे तुम अलग हुए हो, और कोई किसीको तुम आश्रय करके नहीं हो। इस अवस्था. के बाद ही तुम 'मैं' में मिल करके 'मैं' हो जाओगे। इस अवस्थामें बोव्य बोधन मात्रका अभाव हो जाता है। इसीको मद्योग कहते हैं । इस अवस्थामें जबतक तुम रहोगे, तबतक तुम्हारा क्रियमाण कोई कम ही नहीं रहेगा, अतएव कर्म न रहनेसे कर्मफल आपही श्राप त्याग हो जावेगा। यह तो हुई क्रियमाण कर्मकी बात, पूर्वके सञ्चित कर्मसमूह जो तुमको फल देते थे और फल देनेके लिये उन्मुख हुए थे, सो सब भी अंधियारेकी ज्योति राशिमें पतंग-प्रवाह सदृश पड़कर जलकर खाक होते चले जावंगे। तब और तुम गुणके भीतर नहीं रहते हो इसलिये गुणोंके उपार्जित कर्म-संस्कार गुणको प्राप्त न हो करके निर्गुणमें पड़ करके क्रिया विहीन हो जायेगा। और इस अवस्थामें भविष्यत् शब्दके अर्थक अभावके लिये कशिंका भी नहीं रहेगी, इसलिये तुमको माया-विकार-शून्य कराकर आत्मवान् का देगा। इसीको तुम करा करो ॥ ११॥ .
श्रेयो हि ज्ञानमभ्याखातूज्ञानाद्धयानं विशिष्यते।
ध्यानात् कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥ १२ ॥ - अन्वयः। (अविवेकपूर्वकात् ) अभ्यासात् ज्ञानं हि श्रेयः ( निश्चितमेव प्रशस्वतरं ), ज्ञानात् ध्यानं विशिष्यते; ध्यानात् (कर्मफलत्यागः (विशिष्यते ); ( एवं ) त्यागात् अनन्तरं शान्तिः ( उपशमः स्यात् ) ॥ १२ ॥