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श्रीमद्भगवद्गीता नहीं जाता। 'सर्वत्रगं' अर्थात् आकाश सदृश जो सर्वव्यापी। 'अचिन्त्यं'--जो चिन्ताके विषयीभूत नहीं, अर्थात् चिन्ता करके जिनकी रचना की नहीं जा सकती। 'कूटस्थ'-दृश्यमान जो कुछ गुणमन्त और दोषमन्त है उसीको कूट कहा जाता है, अर्थात् अविद्यादि अनेक संसार-बीज-दूषित पदार्थको 'कूट' कहते हैं । माया, प्रकृति, विद्या इन तीन शब्दोंके अर्थको धारण करके महेश्वर जैसे मायिन् नाम पाये हैं, तैसे उन दोष-गुणमन्त पदार्थोके अध्यक्ष स्वरूप रहे हैं जो, उन्होंको कूटस्थ कहते हैं। जिनकी चलने फिरने वाली जगह नहीं, वह 'प्रचल' है। 'ध्रुव' कहते हैं नित्यको। इस शरीरके समस्त इन्द्रिया, पन्चप्राण, और बुद्धिको सर्व कालमें संयत करके सव भूतोंके हितमें रत रहनेसे जब इष्ट और अनिष्टका उदय होता ही नहीं, ऐसी अवस्थामें वह ऊपर वाले विशेषणोंका आधार जो 'मैं' है, उस मैं में पड़नेसे मेरी उपासना करना भी होता है, और उस मैं को पाना भी होता है। दर्शनीय शरीर धारण कर रह करके भी ज्ञानी जैसे आत्मा ही श्रात्मा है, यह भी तद्रप ॥ ३ ॥४॥
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिदुखं देहवद्भिरवाप्यते ॥५॥ अन्वयः। अव्यक्तासक्तचेतसां तेषां (जनाना) क्ले अधिकतरः; हि ( यस्मात् ) अव्यक्ता गतिः (अव्यक्तविषया निष्ठा ) देहवद्भिः ( देहाभिमानिभिः ) दुःख ( यथा स्यात् तथा ) अवाप्यते ॥५॥
अनुवाद। अन्यक्कमें आसक्त चित्त उन सब लोगोंको क्लेश अधिकतर है, क्योंकि देहाभिमानी जन अव्यक्तगति दुःखसे प्राप्त होते हैं ॥५॥
व्याख्या। साधक देखते हैं कि, वचनमें परमार्थदशी, अथच देहाभिमान छुटा नहीं, जिनकी ऐसी अवस्था है, उनके क्लेशको सीमा नहीं; उन सबको “मैं-मेरे" भावमें माबद्ध रहना ही पड़ता है।