________________
१२१ .
द्वादश मल्याय क्योंकि, "मेरे" लेकरके ही संसारमें जितना कर्म है। इन कर्मों का अत्यन्त अभ्यासके लिये "मेरे” छोड़ करके "मैं' में गिरने जावो तो अनजान भावसे "मेरे" का ऊपर गिरा देता है। जिसलिये "मैं" में गति होती नहीं॥५॥
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः। अनन्येनैव योगेन मां व्यायन्त उपासते ॥ ६ ॥ तेषामहं समुद्धा मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि न चिरात् पार्थ मय्यावेशित्तचेतसाम् ॥ ७॥ अन्वयः। हे पार्थ। ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि ( परमेश्वरे ) संन्यस्य (समय) अनन्येन एष योगेन ( एकान्तभक्तियोगेन ) मत्पराः ( भूत्वा ) मां ध्यायन्तः (चिन्तयन्तः ) उपासते, अहं तेषां मय्यावेशितचेतसा मृत्यु संसारसागरात् न चिरात् (अचिरेण ) समुद्धता भवामि ॥ ६ ॥ ७॥
अनुवाद। हे पार्थ । परन्तु जो सब लोग समुदय कर्म मुझको अर्पण करके एकान्तभक्तियोगसे मत्परायण होकरके हृदयमें मुझको बैठायके ( ध्यानयोगसे ) उपासना करते हैं, हममें निविष्टचित्त उन सब लोगोंको मैं तुरन्त मृत्यु-युक्त संसार-सागरसे उद्धार करता हूँ ॥ ६ ॥ ७ ॥
व्याख्या। जो कोई साधक सर्वकर्म अर्थात् २१६०० दफे निश्वास प्रश्वासका त्याग ग्रहण की क्रिया "मैं' में अर्थात् ब्रह्मनाड़ीके भीतर सम्यक् प्रकारसे समर्पण करके एकान्तभक्तियोग द्वारा दूसरी कोई चिन्ता-संम्रव-दोष न रख करके केवल मात्र “मैं” के वाचक स्वरूप उसी ब्रह्म:मन्त्रका अवलम्बन करके इष्ट मूर्तिका ध्यान करते हुए उपासना करते हैं, अर्थात प्रात्मस्वरूपमें स्थिति ( समाधि) लाभ करते हैं। वही साधक "मय्यावेशितचित्त” होते हैं, और वही साधक अतिशीघ्र मृत्यु-संसार-सागर रूपी दुस्तरणीय आने जाने वाले प्रवाहसे परित्राण पा करके ऊपरमें अटक रहते हैं-“मैं” हो जाते हैं।