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एकादश अध्याय योगके सब प्रकारका फल उत्पन्न होते हैं। जैसे शय्या पर लेटते रहनेसे 'निद्राके आक्रमण करने पर पूर्वकृत कर्मफल के लिये स्वप्नमें विविध अवस्थाका भोग और नाना प्रकारके दर्शन श्रवणादि होते हैं, परन्तु वह अलीक है, उसी प्रकार स्थिरासनमें बैठकर गुरूपदेश अनुसार क्रिया करते रहनेसे आपही आप योगनिद्राके आविर्भावसे "प्रबोध-समयका" उदय होता है, उस समय प्रबुद्ध होकर अद्वय
आत्माका ("आत्मानमेवाद्वयं") साक्षात्कार लाभ होता है, वह सब सत्य और अभ्रान्त है। शय्या पर सो रहनेके सदृश साधकको स्थिरासनमें बैठकर कर्ममें लगे रहनेका नाम ही निमित्त होनेका अवश्यम्भावी चिरन्तन फल यह है कि, आत्मभावके द्वारा संसारवासना और तदनुकूल वृत्ति समूह सब लय हो जाते हैं, पुनरूद्भवकी फिर सम्भावना ही नहीं रहती।
भगवानने अर्जुनको सव्यसाची कहकर सम्बोधन कर, अर्जुन जो निमित्तकारण होनेका उपयुक्त पात्र हुये हैं, उसी विषयका लक्ष्य करा दिये हैं। जिनके दहिने तथा वाए, दोनों हाथमें अव्यर्थ सन्धान रहता है। उन्हींको सव्यसाची कहते हैं। साधकको भी जब ठीक सुषुम्नाके भीतर वायुचालन होता है, तब श्वासप्रश्वास युगपत् दोनों नासिकामें ही सरल भावसे चलते रहते हैं, और वायुकी आकर्षण तथा विकर्षणकी गति भी समान ( बरोबर ) हो जाती है, और दशांगुलि प्रवेश, तथा द्वादशांगुलि बाहर पाना भी मिट जाता है; उस समय विषमता रहती ही नहीं। जो साधक इस अवस्थापन्न हैं उन्हींको सव्यसाची कहते हैं। इस अवस्था में साधक को निर्लिप्तता छाये रहती है। तौभी असाधक लोग निमित्त दोष लगा देते हैं। इसलिये कहा गया है कि तुम निमित्त मात्र हो जाओ ॥२३॥