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एकादश अध्याय भय और साधनाका जय होनेसे मुक्ति वा चिरशान्ति निश्चय होती है। इस दृढ़ बोधके प्रकाश पानेसे 'सब्जय उवाच' कहा हुआ है॥३५॥
अर्जुन उवाच । स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत् प्रहष्यत्यनुरज्यते च । रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ॥ ३६ ॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच। हे हृषीकेश ! तव प्रको| (त्वन्माहात्म्यकीतनेन ) जगत् प्रहृष्यति (प्रहर्षमुपैति) अनुरज्यते च ( अनुरागं च उपति), रक्षांसि भीतानि ( सन्ति ) दिशः द्रवन्ति ( पलायन्ते ), सिद्धसंधाः (सिद्धसमूहाः) सर्वे च नमस्यन्ति-(एतब )स्थाने ( युक्तमेव ) ॥ ३६॥ . अनुवाद । अर्जुन कहते हैं । हे ह्रषीकेश ! तुम्हारे माहात्म्य कीत्त'नसे जगत् प्रहृष्ट और अनुरागयुक्त होते हैं, राक्षसगण भीत हो करके दश दिशामें दौड़ते हैं। और सिद्धसमूह नमस्कार करते हैं, ये समस्त ही युक्तियुक्त है ॥ ३६ ॥
व्याख्या। पुनः साधक प्रकृतिस्थ हो करके पूर्वको अनुभूति स्मरण करके मनही मनमें कहते हैं कि, हे हषीकेश ! तुम्हारी इस अलौकिक विभूतिके प्रत्यक्ष होनेसे तुम्हारे ऊपर जगत्का जो अनुराग होवेगा इसमें सन्देह क्या है ? इस पन्थमें देखता हूँ कि अत्याचारी अनाचारी राक्षसगण ( काम, क्रोधादि रिपुगण) भयभीत होकर दश दिशा में दौड़ते हैं। और जगत् जैसे इस खुशियालीसे अनार सदृश फट करके अपने हृदयमें परिपूर्णत्व दिखलाता है। (साधक जब क्रियाकी परावस्थाकी पूर्वावस्था और परावस्थाकी परावस्थामें इस अरूपका रूपका दर्शन और स्मृतिका अनुभव करते हैं; तब उस जगदानन्दके आनन्दमें विभोर [ मतवाला ] हो जाते हैं )। जो लोग प्राप्तिकी