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एकादश अध्याय
१०७ द्रष्टुं इच्छामि, हे सहस्रबाहो । हे विश्वमूर्त ! तेन एव चतुर्भुजेन रूपेण ( धसुदेवपुत्ररूपेण ) भव ॥ ४६॥
अनुवाद। मैं तुमको उसी किरीटधारो, गदाधारी, चक्रहस्त रूपसे देखना चाहता हूँ। हे सहस्रबाहो ! हे विश्वमूत! आप उसी चतुर्भुज रूपसे आविर्भूत होइये ॥ ४६॥
व्याख्या। हे सहस्रबाहो विश्वमूर्ते ! तुम्हारे इस विश्वरूपको निरोहित करो हे ठाकुर! जैसे आपने जन्म समयमें मस्तकमें किरीट धारण करके हाथमें शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करके जिस चतुर्भुज रूपसे देवकी बसुदेवका भय दूर करके अभय दिये थे आज उसी भयहारी सौम्य मूर्तिसे मेरे हृदय में भी अभय दीजिये। मैं आपकी उसी मूर्तिका दर्शन करनेके लिये अभिलाषी हूँ॥४६॥
श्रीभगवानुवाच । मया प्रसन्नेन तवार्जुननेदं
रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्। तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्य
यन्मे त्वदन्येन न हष्टपूर्वम् ॥ ४५ ॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हे अर्जुन ! मया प्रसन्नेन ( सता) तव इदं मे ( मम ) तेजोमयं विश्वं ( विश्वात्मकं ) अनन्तं आय परं रूपं ( आत्मयोगात् ( आत्मनः मम योगात् योगमायासामर्थ्यात् ) दर्शितं; यत् (रूपं) त्वदन्येन (त्वादशात् भकात् अन्येन ) न दृष्टपूर्व ( पूर्व न इष्ट)॥ ४७ ॥
अनुवाद। श्री भगवान् कहते हैं । हे अर्जुन ! मैंने प्रसन्न होकर आत्मयोगके प्रभावसे मेरे इस तेजोमय, विश्वात्मक, अनन्त, आद्य परमरूप दिखाया है, जिसको पूर्वमें तुम्हारे बिना किसी और ने नहीं देखा था ॥४७॥
व्याख्या। पुनः साधक निजबोध द्वारा पूर्वके देखे हुए रूपकी लीला समूहकी मीमांसा करते हैं । हे अर्जुन ! यह जो तुमने लोक