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एकादश अध्याय भासकिरहितः) सर्वभूतेषु निर्वैरः ( शत्रुभाव वजितः), सः माम् एति (प्राप्नोति; अहमेव तस्य परागतिनान्या कदाचित् भवतीति ) ॥ ५५ ॥
अनुवाद। हे पाण्डव ! जो साधक मेरे लिये कानुष्ठान करते हैं, मैं हो जिनका परम पुरुषार्थ हूँ, जो मेरे भक्त, संगजित तथा सर्वभूतमें शत्रुभाववजित है . वही साधक मुझे प्राप्त करते हैं ॥ ५५ ॥
व्याख्या। [जिस प्रकार आचार व्यवहार से चलते हुए मुमुक्षुगण मुझ ( "मैं" ) को प्राप्त करते हैं-मुक्त होते हैं, श्रीभगवानने गीताशास्त्र का सार स्वरूप उसी उपदेशको संक्षेपसे इस श्लोकमें व्यक्त कर दिया है ।
अतएव हे अर्जुन ! जो साधक गुरूपदिष्ट पन्थमें प्राणका चालन करते हैं, जो साधक उस “मैं” के ऊपर अपनेको निछावर करते हैं; जो साधक उस 'मैं' को सम्मुखमें रख करके “मैं” में मिलनेकी चेष्टा करते हैं; इसे छोड़कर जिनकी इच्छा दूसरी ओर एक दम नहीं रहती; गुणों के साथ भूत मात्र भी जिनके विरुद्ध किसी प्रकार विघ्नोत्पादन न कर सकनेसे, समूह भूतोंके साथ जिनका विरोध नष्ट हो गया है, वही साधक इस “मैं” को पाते हैं-“मैं” हो जाते हैं ॥ ५५॥
इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायो योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन सम्वादे विश्वरूपदर्शनयोगोनाम
एकादशोऽध्यायः।