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एकादश अध्याय कहते हैं ) उस रूपके दर्शनके लिये सर्वदा इच्छुक रहते हैं। स्थूल शरीर, जाग्रतावस्था और रजोगुणको छोड़कर साधन नहीं होता। देवतोंमें इन सबका अभाव है, इसलिये वे लोग ( देवतागण ) साधन नहीं कर सकते। फिर साधन न करनेसे इस अद्भुत रूपका दर्शन करनेका उपाय भी दूसरा और कोई नहीं है ॥५२॥ .
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया । शक्य एवम्विधो द्रष्टु दृष्टवानसि मां यथा ॥ ५३ ॥
अन्वयः। मां यथा दृष्टवान् असि, न वेदः (ऋगादिभिः चतुभिः) न तपसा न दानेन न च इज्यया अहं एवम्बिधः द्रष्टुं शक्यः ॥ ५३॥
अनुवाद। हमारे जिस रूपका तुमने दर्शन किया है। दूसरा कोई न तो वेदाध्ययनसे, न तपस्यासे, न दानसे और न यज्ञसे हमारे उस रूपका दर्शन कर सकता है ॥ ५३॥ - व्याख्या। यह जो "मैं" है, साम-ऋक-यजु-अथर्व चारों वेदको कण्ठ करनेसे भी उस “मैं” का दर्शन नहीं होता। शरीरादिको सुखा कर, नीचे शिर ऊर्ध्व पादादि करके तपस्या करनेसे भी उस "मैं" को देखा नहीं जा सकता। अग्निहोत्रादि यज्ञसे भी उस "मैं" को कोई देख सकता नहीं। सागरान्त पृथ्वीको दान करनेसे भी "मैं" को कोई देख नहीं सकता। जिस तरहसे मैंने उस “मैं” को देखा है, ठीक ठीक उसी प्रकार साधन करके उस "मैं” को देखना होता है। उससे दूसरा और कोई पन्थ नहीं है ॥ ५३॥
भक्त्या त्वनन्यया शक्यः अहमेवम्विधोऽर्जुन। ज्ञातु द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टु च परन्तप ॥ ५४॥
अन्वयः। हे परन्तप अर्जुन! अनन्यया भक्त्या तु एवम्विधः अहं तत्वेन ( परमार्थतः ) ज्ञातु द्रष्टुं च प्रवेष्टुं च ( मोक्षं च गन्तु) शक्यः ॥५४॥