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एकादश अध्याय कल्पना"। यथार्थमें वहां कोई रूपही नहीं है। जैसे जसे साधक अनुभवकी ताड़ना और दिव्यदृष्टिकी सहायतासे देखते देखते नीचे उतरता रहता है, उसीके साथ साथ प्रकृतिगत भावके विषय समूहको उसमें लगाते लगाते आते हुए सांसारिक ऐसी एक मूत्ति बना लेता है, जो उस पूर्वोक्त समष्टिका भावमय आकार यह वासुदेव है। भगवान ने पूर्व श्लोक-कथित भीत अर्जुनको अभय दे करके 'वसुदेव गृहे जात' उस चतुर्भुज रूपको दिखला कर पुनः सौम्य ("तोत्रवेत्रकपाणि" सखा ) मूर्ति धारणकर आश्वास दिया। साधनके प्रथम उन्नति क्रममें साधक निर्भय रहते हैं, परन्तु साधनमें उन्नत होकर विश्वव्यापी अवस्था प्रत्यक्ष करनेके समय, हृदयका संसारासक्तिके लिये दुर्बलताके कारण उनका वह निर्भयता भयमें परिणत होता है। परन्तु पश्चात् वासुदेव अवस्थाके परिज्ञानसे उस भयका अपसारण होनेसे आश्वासित होते हैं, और अति सन्तर्पणसे उस महान् भावको अपना मानुषि अन्तःकरणमें धारणाका उपयोगी करके प्रकृतिस्थ होकर सौम्य भाव धारण करते हैं ॥ ५० ॥
अर्जुन उवाच। राष्ट्रदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥५१॥ अन्वयः। अर्जुन उवाच। हे जनार्दन । तष इदं सौम्यं मानुषं रूपं दृष्ट वा इदानीं सचेताः ( प्रसन्नचित्तः ) संवृत्तः ( संजातः ) अस्मिा प्रकृतिं च (स्वास्थ्यं) गतः (प्राप्तोऽस्मि ) ॥५१॥
अनुवाद। अर्जुन कहते हैं। हे जनार्दन ! तुम्हारा इस सौम्य मानुष रूपका दर्शन करके अब मैं प्रसन्नचित्त और स्वस्थ हूँ। ५१३
व्याख्या। हे जनार्दन ! तुम्हारी इस मनोहर मानुष मूर्तिका दर्शन करके मैं अब और उसी सर्वभूतात्मक रूपमें अटका नहीं हूँ मैं
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