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एकादश अध्याय व्याख्या। वसु शब्दका अर्थ है रत्न,-जैसा हीरा, चुन्नी, मणि, माणिक्य, स्थावर अथवा अस्थावर सदृश ऐसी कोई चीज जिसके भीतरसे ज्योति निकले, परन्तु दृढ़ एवं स्वच्छ आवरणसे ढकी हुई हो। देव शब्दमें दीप्ति है। तभी हुश्रा, स्थावर अथवा अस्थावर सदृश कोई वस्तु, जिसके भीतरसे ज्योति निकलती है, और वह दृढ़ स्वच्छ आवरणसे ढका हुआ दिखाई पड़ता है। ऐसा दीप्तिमान जो है वही "वसुदेव" है। और वासुदेव कहते हैं समस्त देव अर्थात् ज्योतिष्मान् लोग जहां इक? हो करके निवास करते हैं, ऐसे स्थानको। "ज्योतेरभ्यन्तरे रूपं अचिन्त्यं श्यामसुन्दर”। साधक जब अज्ञानचक्रमें रहकर ऊर्ध्वदिशामें देखते हैं, तब ठीक सन्मुखमें वसुदेव दिखाई पड़ते हैं। उसो वसुदेवका भेद होनेसे ही वासुदेवका दर्शन होता है। इनके निज रूप प्रकृतिके साथ आत्मा मिल करके ( आत्मा अनादि-अनन्त
और प्रकृति सादि-सान्त हैं. इन दोनोंके मेलसे ) सादि-अनन्त रूपसे साधकके अनुभवमें आता है। इस सुन्दर रूपकी सीमा नहीं है, इसलिये सिद्ध साधक लोगोंने इस रूप-राशिके मस्तकमें किरीट दे करके रूपका श्रेष्ठत्व प्रतिपादन किया है, इसीलिये यह किरीटधारी हैं।
यहाँ किसी भूतका ठौर ठिकाना नहीं, परन्तु तन्मात्राका प्रकाश है। "अ" और "ऊ” मिल करके जैसे अविच्छिन्न कैसा एक प्रकार का शब्द सुननेके सदृश बोधमें आता है। इसलिये साधक उस शब्द को शंखनादके सादृश्यसे लेकरके उस स्थानके एक दिशामें शंख कह करके स्थापन किये हैं। (चिन्ताशील लोग इस जगत्को शब्दमात्र वस्तुशून्य विकल्प कहते हैं)। ___सादि जो कुछ है, वह एक जगहस उत्पन्न हो करके घूमते फिरते फिर उत्पत्ति स्थानमें आकरके विश्राम लेता है। यहां भी जहांसे अनुभूतिका प्रारम्भ होता है, वहांसे सब दिशाओंमें घूमते घामते फिर