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श्रीमद्भगवद्गीता (विमूढ़चित्तता ) च मा (अस्तु ); त्वं व्यपेतभीः (विगतमयः) प्रीतमनाः ( सन् ) पुनः मे इदं तदेव रूपं ( शङ्खचक्रगदापद्मधरं चतुर्भुजं रूपं ) प्रपश्य ॥ ४९ ॥
अनुवाद। ईदृश भयंकर मेरा यह रूप देखकरके तुम्हें भयभीत न होना चाहिये, विमूढ़ भी न होना चाहिये; तुम विगतभय और प्रसन्नचित्त हो करके पुन: यह मेरा वही रूप देखो ॥ ४९॥
व्याख्या। "मा ते व्यथा"-तुम और भय न करो। "मा च विमूढ़भाव" और तुमको काम, क्रोध, शम, दम आदिके वशीभूत हो करके चलनेका प्रयोजन नहीं है । (आत्महारा हो करके काम, क्रोध, मोह विवेक, वैराग्य आदि किसी वृत्तिका आश्रय लेना ही विमूढ़त्व है)। तुमने तो देखा मेरा घोर (सर्वको नाश करने वाला ) रूप कैसा है ? अब तुम अपने मनको निर्भय और तृप्त कर लो। पुनः मेरा वही रूप -वही शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी. चतुभुज रूप, जिसे तुम देखने के लिये उत्सुक हुए हो, देखो ! ॥ ४६॥
सञ्जय उवाच।
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा ।
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः। आश्वासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥५०॥
अन्वयः। वासुदेवः अर्जुनं इति उक्त्वा भूयः स्वकं ( स्वीर्य ) तथा ( पूर्ववत् 'किरीटगदादियुक्त चतुर्भुजं ) रूपं दर्शयामास; महात्मा सौम्यवपुः ( प्रसन्नदेहः) भूत्वा पुनश्च भोतं एनं ( अजुनं ) भाश्वासयामास ॥५०॥
अनुवाद। वासुदेवने अर्जुनको इस प्रकार कह करके पुनः अपना वही चतुभुज रूप दिखाया; और महात्माने ( श्रीभगवान ) प्रसन्नमूत्ति हो करके भयभीत अर्जुन को पुनश्च पाश्वस्त किया ॥५०॥