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एकादश अध्याय अनुषाद । हे कुरुप्रबोर ! न वेदाध्ययनसे न दानसे न क्रिया सम्हसे न उग्र तपस्यासे मनुष्यलोकमें तुम्हारे बिना अबतक दूसरा कोई मेरे इस रूपका दर्शन करनेमें समर्थ हुआ ॥ ४८ ॥
व्याख्या। न वेद-(विद् धातुका अर्थ ज्ञान है ) ज्ञानावस्थामें पहुँचनेसे इस रूपका दर्शन नहीं होता, क्योंकि उस समय दृश्य-द्रष्टाभावका अभाव होता है।
यज्ञ-जबतक आदान प्रदान रहता है तबतक अर्थात् कुछ लेना देनाकी वृत्ति (अभिलाषा) रहनेसे इसका दर्शन नहीं होता। __ अध्ययन-बुद्धि जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धमें विस्तृत हो गई है, उन सबसे उसको समेटकर स्वस्थानमें रखनेका काम जबतक जारी रहता है, तबतक भी इस रूपका दर्शन नहीं होता। __न दान:-त्याग ही त्याग करते रहनेसे भी इसका दशन नहीं होता।
न क्रियाभि:-गुरूपदिष्ट क्रियाओंसे जबतक प्राण-संचालन किया जाता है, उसके भीतर इस दृश्यका आविर्भाव नहीं होता।
न तपोभिरुप:-क्रिया कालमें स्वेद, कम्पन, और गति, ये जो अवस्थात्रय हैं इन तीनोंमें से एक भी रहनेसे इसका दर्शन नहीं होता।
यह जो आत्मरूप है, यह ठीक ठीक 'मैं' में 'मैं' मिलानेका अव्यवहित पूर्व में ही साधकमें प्रकाश पाता है । हे कुरु-प्रवीर ! इसका और कोई दूसरा रास्ता नहीं है । ४८ ॥
मा ते व्यथा मा च विमूढ्भावो ____दृष्ट्वा रूपं घोरमीहङ ममेदम् । व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्वं
___ तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥ ४६ ॥ अन्वयः । मम ईदृक घोरं इदं रूपं दृष्ट वा ते व्यथा'मा (अस्तु) विमूढभावः