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__ श्रीमद्भगवद्गीता प्रकृतिगत हुआ हूँ, अर्थात् प्रकृतिके साथ मिल चुका हूँ; जड़-चैतन्यके संयोगसे जो होता है, मैं वही हुआ हूँ; प्राकृतिक प्रावरणके भीतर पहुंच कर चित्तधर्माकान्त हुआ हूँ।
विश्वरूप दर्शनके समय जीवभाव चित्ताकाशको अतिक्रम करके चिदाकाशमें अवस्थान करता है। उस अवस्थामें जो जो अनुभव प्रत्यक्ष होता है, उनका वर्णन शब्दोंके द्वारा किया नहीं जा सकता वह अव्यक्त है-चित्तकी धारणा करनेके अतीत विषय है; अतएव चित्त प्रसन्न नहीं होता, किम्भूत किमाकार मूत्तिके दर्शनसे शान्ति नहीं पाता; भयभीत हुभा रहता है। पश्चात् निज विश्वरूप सम्वरण करके जब इष्टदेव मानुष रूप धारण करते हैं, तब उसका भय दूर होता है, चित्त प्रसन्न होता है और उस समय प्रकृतिस्थ होना पड़ता है। क्योंकि स्वभावतः मनुष्य अभीष्टदाताको स्वजातीय रूपमें देखनेसे सम-प्राणके लिये प्रसन्न होता है, विजातीय रूपमें उसे देखने से भयभीत होता है ॥५१॥
श्रीभगवानुवाच ॥ सुदुईमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाक्षिणः ।। ५२ ॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । मम इदं सुदुर्दशं ( अत्यन्तं द्रष्टुं अशक्यं ) यत् रूपं दृष्टवान् असि; देवाः अपि अस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाक्षिणः ॥ ५२ ॥
अनुवाद। श्रीभगवान कहते हैं.। यह जो मेरे सुदुर्दर्श रूपका तुमने दर्शन किया है, देवता समूह भी नित्य उस रूपके दर्शनको आकांक्षा करते हैं ॥ ५२ ॥
व्याख्या। पुनः साधक आत्मज्ञानमें उठ करके आपही आप पूर्व अनुभूतिकी मीमांसा करते हैं। यह जो हमारा अद्भूत रूप है, जो रूप अति कठोर साधनसे दर्शनमें आता है, मैंने देखा कि देवतागण भी (तैजस, सूक्ष्मशरीरधारी कर्मफलके भोक्ताओंको देवता