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श्रीमद्भगवद्गीता प्राप्तिको पा चुके हैं, वे ही सब महाजनगण एक दृष्टिसे तुमको देखते हुये 'तुम और मैंको' एक करके प्राणायामसे तुमको नमस्कार करते हैं। अहो! क्या ध्रुव सच्चीवाणी है। यह कार्य भी ठीक उचित होता है । प्रभो ! तुम्हारा कीर्तन कैसा है, पहले मैं उसे नहीं जानता था। परन्तु अब देखता हूँ, जीम उलटके दांत और ओष्ठ सम्पूट करके गुरूपदिष्ट क्रियामें मूलाधारसे यथानियम अनुलोम विलोमसे जो प्राणका परिचालन है (जिससे 'तुम मैं' एक होता है ) यही तुम्हारा मुख्य कीर्तन है ॥ ३६॥
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकरें। अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत् परं यत् ॥ ३७॥ अन्वयः। हे महात्मन् ! हे अनन्त । हे देवेश ! हे जगन्निवास ! ब्रह्मणः (हिरण्यगर्भस्य ) अपि गरीयसे (गुरुतराय ) आदिकत्रे च (ब्रह्मणोऽपि जनकाय ) ते (तुभ्यं ) कस्मात् ( हेतोः) न नमेरन् ( नमस्कारं कुय्यु:); त्वं अक्षरं ( कूटस्थं) सत् (व्यक्ती) असत् ( अन्यक्त) तत्परं यत् ( सदसदो अतीतं यत् अवाङ मनसोगोचरः तत् असि इत्यर्थः) ॥३७॥ ___ अनुवाद । हे महात्मन् । हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! ब्रह्माजीसे भी गुरुतर और आदिकर्ता तुम हो, तुमको सब क्यों नहीं नमस्कार करेंगे? तुम अक्षर, सत् , असत् और उससे भी अतोत जो है ( वह भी) हो ॥ ३७॥
व्याख्या। मकड़ा अपने शरीरसे जाल विस्तार करता है। उसमें कीड़ा, पतंग, मचड़, मक्षिका फंसा करती हैं। कोई भागा कोई मरा। पुनः उस विस्तार किया हुआ जालको मकड़ाने अपने शरीरमें लपेट लिया। परन्तु जाल विस्तारके पहिले और जाल समेट लेनेके बाद विश्राम नामकी मकड़ेकी एक अवस्था होती है । देखता हूँ कि, जगत्के