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श्रीमद्भगवद्गीता आधार-जिसमें परिणाम मात्रका अभाव है-जिसके ऊपर सब कुछ होता है, वह जैसे क्षय व्यय शून्य वैसा ही है, वही तुम्हारा अद्वितीय "त्वम्" है। सब देवतोंके वासस्थान हिरण्यगर्भ है, उस हिरण्यगर्भके भी वासस्थान वही 'त्वम्' है। इसलिये वह “त्वम्" वासुदेव है। अतएव कहा जाता है कि-हे महात्मन् ! हे अनन्त ! हे देवेश ! हे अगन्निवास ! जब ऐसे तुम हो, तब तुमको प्रणाम न करके और किसको प्रणाम करेंगे प्रमो? ॥ ३७॥
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण
स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । वेत्तासि वेद्यञ्च परब्च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥ ३८.॥ अन्वयः। हे अनन्तरूप ! त्वम् आदिदेवः पुराणः (चिरन्तनः ) पुरुषः । त्वम् अस्य विश्वस्य परं निधानं ( लयस्थानं ); ( त्वम् ) वेत्ता (ज्ञाता ) नेयं च (वस्तुजातं च ) परं च धाम (वैष्णवं परमं पदं च ) असि, त्वया विश्वं ततं (व्याप्तं) ॥ ३८॥
अनुवाद। हे अनन्तरूप ! तुम आदिदेव और पुराण पुरुष हो; तुम इस विश्व के लयस्थान हो। (तुमही ) वेत्ता, वेद्य और परम धाम ( विष्णु पद ) हो; तुमसे विश्व व्याप्त हो रहा है ॥ ३८ ॥
व्याख्या। पहले साधक आधार में विश्वरूप देख चुके थे, अब विश्वरूपमें आधारको देखते हैं। 'त्वमादिदेव' हे प्रभो ! देखता हूं कि तुम प्रथमके भी प्रथम हो। इस माया-पुरमें सोये हुये तुमने 'पुरुष' नाम धारण किया है। समस्तका ही परिणाम है, केवलमात्र अपरिणामी चिरन्तन तुम हो। इस नाम रूपके शेष विश्राम स्थान वा आधार तुम हो। जाननेका जो कुछ है सो सब एकमात्र तुम ही जानते हो। पुनः जाननेका जो कुछ है, वह भी तुम ही हो।