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श्रीमद्भगवद्गीता में पड़ करके, तुमको (अप्रमेय होनेसे भी ) “हे कृष्ण! हे यादव ! हे सखा ! इत्यादि रूप-गुणात्मक नामोंसे सम्बोधन करते हुये प्रमाण के अन्तर्गत जो जो अनुचित शब्द कहा है, अथवा प्रत्यक्ष वा परोक्षमें शयन, उपवेशन, भोजन, और विहार इत्यादिमें अज्ञानतावश मैंने जो तुम्हारा असम्मान किया है, हे अच्युत ! मेरे वह सब दोष तुम क्षमा करो ॥४१॥ ४२ ।।
पितासि लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुगरीयान् । न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥ ४३ ॥
अन्वयः। हे अप्रतिमप्रभाव ! त्वं अस्य चराचरस्य लोकस्य पिता पूज्यः गुरुः गरीयान् च ( गुरुतरः च ) असि; लोकत्रये त्वत्समः अपि ( त्वत्तुल्यः एव ) अन्यः . न अस्ति, अभ्यधिकः ( त्वत्तोऽधिकः ) कुतः ( स्यात् ॥ ४३ ॥
अनुवाद। हे अप्रतिमप्रभाव ! तुम इस चराचर जगत्के पिता, पूज्य, गुरु और गुरुके भी गुरु हो; तीनों लोकमें तुम्हारे सदृश दूसरा कोई नहीं है, अतएव तुमसे अधिक और कहां है ॥ ४३n :
व्याख्या। तुम स्थावर जंगमात्मक लोकजगत्के पिता हो; क्योंकि यह सब तुम्हीसे उत्पन्न होते हैं। केवल यही नहीं, इन सबके पूजनीय, गुरु और गुरुके भी गुरु तुम हो। इन सबके भीतर तुम्हारे सदृश वा तुमको अतिकम करनेवाला कोई भी नहीं है। तीनों लोकमें तुम्हारे प्रभावकी (क्षमताकी) सादृश्य नहीं है प्रभो! तुम्हारा प्रभाव प्राकृतिक चौबीस तत्वोंके प्रभावसे अतीत है इसलिये तुम अप्रतिम प्रभाव हो। तुम एक अद्वितीय हो ॥ ४३ ॥