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एकादश अध्याय अनुवाद। संजय कहते हैं,-केशवके यह वचन श्रवणानन्तर कम्पमान अति भीत अर्जुन, कृताञ्जलिसे कृष्णको नमस्कार तथा बारंबार प्रणाम करके गद्गद वचन से कहते हैं ॥ ३५ ॥
व्याख्या। असिद्ध साधक ब्राह्मीस्थितिमें अटक रहने अथवा अनुभवसिद्ध विचारको लेकर उत्तरगतिके क्रमसे ऊंचे उठने अधिक क्षण नहीं सकते। इसलिये उनको नीचे उतर आना पड़ता है। नीचे आकर वे जो अनुभव प्रत्यक्ष करते हैं, वह भी आज्ञाचक्रसे ही होता है। पृथिव्यादि पांच भूत मूलधारादि पांचों चक्रमें हैं, ये पांचों भूत हो सर्व कहलाते हैं। आज्ञाचक इन पांचों चक्रके ऊपर है। नीचेवाले पांचोंको जय किये बिना आज्ञाचक्रमें रहनेका अधिकार नहीं मिलता। जो साधक इस आज्ञाचक्रमें रहते हैं, वही पञ्चमयी हैं और उन्हींको सञ्जय (सं+जय ) कहा जाता है। (१म अः १म और २१वां श्लोक और ११श हवा श्लोक देखो)।
"केशव"-के-जळमें, और शव मृतदेह है। अर्थात् प्रलयके बाद प्रलय रसमें जो अनन्तरूपसे शवके सदृश निश्चिन्त और खारा पानीमें लवणके सदृश भासमान रहते हैं, जिस अवस्थामें सृष्टिकी अर्थात् उत्पादित्वका (समागम का) हर्ष, और संहारका अर्थात् प्रलय ( अपगम ) का विमर्ष नहीं रहता, ऐसे अवस्थापन्न जो पुरुष हैं, उन्होंको केशव कहते हैं (१०म अः १४वां श्लोक देखो)।
साधक जब केशवावस्थाका भोग करके नीचे उतर आये, तब उस केशवकी पूर्वावस्थाकी स्मृति, केशव अवस्थाका अनुभव और वर्तमान अवस्थाके ज्ञान, यह सब मिलकर जो सरस विभोरता होती है, वही केशवका वचन सुननेका आभास है।
"कृतान्जलि"। इस समय ऊर्ध्वदिशामें लक्ष्य रहनेसे भी ऊपर उठनेवाली शक्ति नहीं रहती। तथापि ऊर्वमें लक्ष्य रहने के कारण