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श्रीमद्भगवद्गीता अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति
केचिद्भीताः प्राब्जलयो गृणन्ति । स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥ २१ ॥
अन्वयः। अमो सुरसंवाः त्वां हि विशन्ति ( शरणं प्रविशन्ति ), केचित् भीताः (दूरत एव स्थित्वा ) प्राञ्जलयः ( कृतसम्पुटकरयुगला सन्तः ) गृहन्ति ( जय जय रक्ष रक्षेति प्रार्थयन्ते ); भहर्षिसिद्धसंघाः स्वस्ति इति उक्तवा त्वां पुष्कलाभिः ( सम्पूर्णाभिः ) स्तुभिः स्तुवन्ति ॥ २१ ॥
__अनुवाद। वह सब सुरसमूह तुममें ही ( शरणार्थ ) प्रवेश करते हैं, कोई कोई. भयभीत, कृताञ्जलि हो करके (दूरसे ही रक्षा करो रक्षा करो कहते हुए ) प्रार्थना करते हैं; और सिद्धगण "स्वस्ति" यह वचन कह करके तुमको पुष्कल ( सुसम्पन्न ) स्तुति समूहसे स्तव करते हैं ॥ २१ ॥
व्याख्या। 'अम्' = रोगग्रस्त, और 'इन्' = रहना; रुग्न हो करके रहनेका नाम 'अमी' है। 'हि' =निश्चय । 'सुरसंघा' = देवतासमूह; त्वा-तुममें, 'विशन्ति' =प्रवेश करते हैं । वे तेजवान् देवता भी तुम्हारे तेजकी प्रभासे रोगग्रस्त ज्योतिहीनोंके सदृश तुममें ही प्रवेश करते हैं, कोई कोई पुनः भयसे विभोर होकर हाथ जोड़ करके रक्षा करो रक्षा करो कहते हैं। और सिद्ध महर्षि समूह 'स्वस्ति' इस आशीर्वचनोंसे जगतको आशीर्वाद कर रहे हैं, क्योंकि जगत् यदि न रहता तो यह अरूपका रूप हम सब किस तरहसे देखते. इत्यादि कहते हुये तुम्हारी उत्कृष्ट स्तुतिसे स्तव करते हैं। अर्थात् विश्वरूपमें मतवाला हो करके कहते हैं,-भो! भो! यही तो तुम्हारा अरूपका रूप है ! ऋत, सत्य, नित्य, परं! अहो ! जय जगदीश हरे ! “हरे मुरारे मधुकैटभारे गोपाल गोविन्द मुकुन्द शौरे। यज्ञेश नारायण कृष्ण विष्णो निराश्रयं मां जगदीश रक्ष” ॥ २१॥