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श्रीमद्भगवद्गीता रूपं महत् ते बहुवक्त्रनेत्रं
महाबाहो बहुबाह रुपादम् बह दरं बहुदंष्ट्राकरालं
· पृष्ठा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥ २३ ॥ अन्वयः। हे महाबाहो ! ते बहुवत्कनेत्रं बहुबाहूरुपादं बडूदरं बहुदंष्ट्राकरालं (बहुदष्ट्राभिः विकृतं ) महत् रूपं दृष्ट वा लोकाः प्रव्यथिताः ( भयेन प्रचलिताः) तथा अहं (अपि) ॥ २३ ॥
अनुवाद । हे महाबाहो! तुम्हारे बहुमुख और नयन विशिष्ट, बहुबाहु उरु और पाद विशिष्ट, बहु उदर विशिष्ट, बहुदंष्ट्रासे भयंकर महत् रूप देख करके समस्त लोक भय विचलित होते हैं, मैं भी भयातुर होता हूँ ।। २३ ।। __ व्याख्या। हे महाबाहो! (आदि, अन्त तथा मध्य विशिष्ट जो कुछ हैं, वह सब जिसके हाथके मध्यगत सदृश आयत्ताधीन हो सके, उन्हींको महाबाहु कहते हैं ) “रूपं महत्ते"-महत्को भी अतिक्रम करके यह जो तुम्हारा अप्रमेय रूप ! तुम्हारा कोई रूप नहीं; क्योंकि तुम अनादि अनन्त हो। रूप है सादि खान्तमें । परन्तु तुम महतूको भी अपने गर्भके भीतर लेकरके कैसे एक प्रकारका क्या हुए हो, उसका वर्णन भाषामें नहीं आ सकता इस करके कहा मी नहीं जाता। तथापि उस महत्में तुम्हारा जो रूप स्फुटित हो उठा, उसमें असंख्य मुख, चक्षु, हाथ, असंख्य उरु, पाद, उदर, असंख्य भीषण आकार वाले दांत देख करके समस्त लोक जगत् भयसे व्याकुल हुआ है, मैं भी व्याकुल हूँ! (साधक! अपना उस समयका ठीक ठीक भाव मिला लो, और मिलाते चलो) ॥ २३ ।। -नभस्पृशं दीप्तमनेकवर्ण
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् । दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृति न विन्दामि शमश्च विष्णो ॥२४ ।। अन्वयः। हे विष्णो! नभस्पृशं (शु स्पर्श ) दीप्त (प्रज्वलितं ) अनेकवर्ण