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एकादश अध्याय रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या
विश्वेऽश्विनौ मरुतश्वीष्मपाश्च । गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघाः
वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥२२॥
अन्वयः। रुद्रादित्याः वसवः ये च साध्याः ( साध्यनाम देवताः ) विश्वे ( देवा ) अश्विनौ ( देवौ ) मरुतश्च ( मरुद्रग्गाश्च ) उष्मपाश्च ( पितरः) गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघाः सर्वे एव च विस्मिताः ( सन्तः ) त्वां वीक्षन्ते ।। २२॥
अनुवाद। रुद्रगण, आदित्यगण, वसुगण, साध्य नामक देवगण, विश्वदेवगण, अश्विनीकुमारद्वय मरुदगण, पितृगण, गन्धर्व-यक्ष-असुर-सिद्धसमूह सब विस्मित हो करके तुम्हारां दर्शन करते हैं ।। २२ ॥
व्याख्या। एकादश रुद्र (१०म अ. २३वां श्लोक), अष्ट वसु ( १०म अः २३वां श्लोक देखो), साध्यगण, (मनः, मन्ता, प्राण, सर, पान, वीर्य्यवान, विनिर्भय, लय, दंश, नारायण, वृष और प्रभु ये बारह प्रकारके देवता लोग ), विश्वदेवगण (वसु, सत्य, ऋतु, वक्ष, काल, काम, धृति, कुरु, पुरुरवा और मद्रव ये दश प्रकारके गणदेवता), अश्विनीकुमार दोनों, मरुद्गण, (मृ=मरण, उतू-मिला देना, अर्थात् जिसके वा जिनके क्रुद्ध होनेसे मृत्यु होती है, उसको वा उन सबको मरुत् कहते हैं ) अर्थात् उन्चास प्रकारके वायुगण, उष्मपा अर्थात् पितृगण (ये लोग सात सम्प्रदाय हैं, अग्निष्वात्त्वा, सौम्या:, हविष्मन्तः, उष्मपाः, सुकालिनः, वर्हिषदः, आज्यपाः) हाहा हुहु
आदि गन्धर्वगण, कुवेरादि यक्षगण, विरोचनादि असुरगण, कपिलादि सिद्धगण, सबके सब विस्मयापन्न होकरके ( म्लान मुखसे ) तुमको देखते हैं। (साधक ! तुम भी उसी प्रकार आश्चर्यान्वित होकर ताकते रहते हो; इसे मिलाकर देखो ) ॥ २२ ॥