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एकादश अध्याय द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि ___ व्याप्तं त्वयकेन दिशश्च सर्वाः। दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुन तवेदं
लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥ २० ॥
अन्वयः। हे महात्मन् ! द्यावापृथिव्योः इदं अन्तरं ( अन्तरीक्ष ) त्वया एकेन हि ( विश्वरूपेण ) व्याप्त सर्वाः दिशश्च ( व्याप्ताः); तव इदं अद्भ तं ( अष्टपूर्व) उग्र ( घोरं ) रूपं दृष्ट्रा लोकत्रयं प्रव्यथितं ( अतिभीतं पश्यामि ) ।। २० ।।
अनुवाद। हे महात्मन् ! स्वर्ग और पृथिवीके अन्तर ( अन्तरीक्ष ) तथा समुदय दिक् समूह एक मात्र तुमसे ही व्याप्त हो रहा है; तुम्हारी इस अद्भ त उग्र मूत्ति का दर्शन करके लोकत्रय अतीव व्यथित ( भीत ) होते हैं, देखता हूँ ॥ २० ॥
व्याख्या। देवगण जहां निवास करते हैं अर्थात् साधन-समय में साधक जिस स्थानमें छायाहीन तेजस मूर्तिका दर्शन करते हैं, उसीको स्वर्ग कहते हैं। मृ'शब्द करनेको कहते हैं ( स्वर ), और ग=गान करना है । प्राणवायुको ( गुरूपदिष्ट रीतिसे ) चलानेमें जिम स्थानसे सप्त स्वरका उत्थान होता है (प्रकाश पाता है ), वही स्थान स्वर्ग है ( साधनसे मालूम होता है)। और कर्म-स्थान अर्थात् स्थूलशरीरधारियोंके आवास भूमिको पृथिवी कहते हैं। इन दोनोंके बीचमें जो अवकाश अर्थात् शून्य भूमिका है, उसीको अन्तरीक्ष कहते हैं। अन्तर कहते हैं भीतरको अर्थात् मध्य स्थानको, और ईक्ष कहते हैं दर्शन करनेको; अर्थात् भीतर भीतर दोनों स्थानके बीचमें जो देखता हूँ, वही अन्तरीक्ष है। हरि ! हरि !! इन तीनों स्थानके दश दिशामें तुमही एक हो करके व्याप्त हो रहे हो! ऐसा स्थान कोई नहीं जहां तुम नहीं,- ऐसी वस्तु भी कोई नहीं जो तुम नहीं हो । हे महात्मन् ! तुम्हारे इस अद्भुत (जिसे पूर्व में मैंने कभी नहीं देखा था) उग्र ( भयावह ) रूपसे तीनों लोकको अत्यन्त भीत देखता हूँ ॥ २० ॥