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एकादश अध्याय
८६ "उत्तिष्ठ”-युद्धार्थ उठ बैठो। युद्धके समय रथीको रयके ऊपर बीरासनसे दृढ़ और संयत होकर बैठना होता है। अर्जुन आत्मीय स्वजनादिकोंके बधकी चिन्तासे कृपा-परवश होकरके शरके साथ धनुष को भी परित्याग कर मेरु ढिला करके, हाथ जोड़कर बीरासन शिथिल करके पालती मारकर बैठ गये थे। इसलिये भगवान कहते हैं "उत्तिष्ठ" अर्थात् युद्ध करनेके लिये उपयुक्त रूपसे उठकर बैठो। साधकको भी साधन समयमें ठीक वैसीही अवस्था होती है, अवसाद के बाद साधकको भी उठके बैठना होता है, अर्थात् दोनों पगोंको उपदेश अनुसार आसन-बद्ध करके मेरुदण्ड सीधा कर छाती फुला, शरीरको संयत करना होता है; और मनको पञ्चतत्त्वोंके ऊपर "प" स्थानमें अर्थात् मस्तकप्रन्थिके ऊपर स्थापन करना होता है। इसी प्रकार उठ बैठ कर प्राणायामादि क्रियाएं (साधन युद्ध ) करनी होती हैं। इस श्लोकमें "उतिष्ठ" शब्द द्वारा यही उपदेश किया गया है।
तत्पश्चात् भगवान् कहते हैं “यशो लभस्व”—यश लाभ करो। यश किसे कहते हैं ?-सत्-कम्मोके फलसे सबके ऊपर स्वभावतः आत्मप्रभाव विस्तार होना ही यश है। साधनामें सिद्धिलाभके पहले प्राकृतिक प्रभाव ही बलवान रहता है, आत्मप्रभाव दबा रहता है। सिद्धिलाभ होनेके बाद प्राकृतिक प्रभाव निस्तेज हो जाता है, और आत्म-प्रभाव सतेज होता है; यही यश है, यही कैवल्यकी सूचना है, अर्थात् 'मैं' व्यतीत और समस्तको छोड़कर अकेला बनना, संकोचता नाश करके विस्तार होना अवस्था है ।
"जित्वा शत्रून् भुक्ष्व राज्यं समृद्ध"-(द्वितीय अः ८म श्लोककी व्याख्या देखिये ।) शत्रु पक्षको अर्थात् दुर्योधन प्रभृति कामादि रिपुगणको जय करके निष्कण्टक राज्य भोग करो, अर्थात् जीवन्मुक्त होकर शरीरान्त न होने पर्य्यन्त, जैसे आकाश निलिप्तताके कारण