________________
एकादश अध्याय
Ae
- श्रीभगवानुवाच । कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो
लोकान् समाहत्तमिह प्रवृत्तः। ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥ ३२ ॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच। लोकक्षयकृत् (लोकानां क्षयकर्ता ) प्रवृद्धः (अत्युत्कटः) कालः अस्मि; लोकान् समाहत्त' (संहत्त) इह ( अस्मिन् काले ) प्रवृत्तः ( अस्मि ), ( अतः ) त्वां ऋते अपि (त्वां हन्तारं विना अपि) सर्वे योधाः (योद्वारः) ये प्रत्यनीकेषु ( प्रतिपक्षभूतेषु अनीकेषु ) अवस्थिताः न भविष्यन्ति ॥३२॥
अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं, मैं लोकक्षय करनेवाला अत्युत्कट काल हूँ, अब लोक समूहको संहार करनेके लिये मैं प्रवृत्त हुआ हूँ; ( अतएव ) तुम्हारे बिना (तुम हनन न करनेसे भी) समुदय योद्वागण जो उभय सैन्यदलमें अवस्थित है, उनमेंसे कोई भी जीवित न रहेगा ॥ ३२ ॥
व्याख्या। प्रकृतिस्थ आत्महारा साधक पूर्वमें जो जो देख आये हैं, निजबोध ज्ञान अनुसार उसीका विचार मीमांसा करते हैं। यही "भगवानुवाच" वावयसे व्यक्त होता है। ___ साधक विचार करते हैं कि, मैं जो देखता हूं उन्हें तो आंख बन्द करके ही देखता हूँ। क्या आंख बन्द करनेसे भी देखा जा सकता है ? ताकते हुए आंखसे ही तो लोग अपने शरीरसे अलग (पृथक् ) अन्य पदार्थों को जो कुछ बाहर देखता है, उसीको तो देखना कहते हैं। यह फिर कैसा देखना है ? इनमेंसे एक भी तो बाहर नहीं है। सब कुछ तो हमारे ही भीतर है। ओ हरि ! हरि !! तब तो सृष्टिस्थिति लयकी समस्त क्रिया मेरे ही भीतर होती हैं, तौभी न तो मैं उन सबको छूता हूं, न कुछ करता ही हूं; ऐसा कि मुझमें कुछ भी अदल बदल होना दिखाई नहीं देता। इसीलिये तो कर्म मात्रके परिसमाप्तिका स्थान मैं ही मैं हूँ ? अहो ! यह मैं कौन हूँ ? जिसका