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एकादश अध्याय
८५ : अज्ञानताके आश्रय समूह (दृश्य जो कुछ ) तुम्हारे मुखमें गिरकर अदृश्य हो जाते हैं । जैसे सूर्यालोकमें आंधियारा ॥ २६ ॥
लेलिह्यसे असमानः समन्ता___ लोकान् समप्रान् वदनैबलद्भिः। . तेजोभिरापूर्य्य जगत् समय
.. भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥३०॥ अन्वयः। ज्वलद्भि ( वक्त ) समग्रान् लोकान् असमानः ( अन्तः प्रवेशयन् ) समन्तात् ( सर्वतः ) लेलिह्यसे ( आस्वादयसि ), हे विष्णो ( व्यापनशील )! तव उग्राः (तीव्राः) भासः ( दीप्तयः) समयं जगत् तेजोभिः आपूर्य्य ( संव्याप्य ) प्रतपन्ति ( सन्तापयन्ति ) ॥ ३०॥
अनुवाद। ज्वलन्त वदन समूहसे समग्र लोगोंको ग्रास करके सर्वतोभाषसे स्वाद ग्रहण करते हो। हे विष्णो । तुम्हारी उग्र दीप्ति समूह समग्र जगत्को तेजसमूहसे परिव्याप्त करके सन्तापित करती है ॥ ३०॥
व्याख्या। साधक ! तुम अपने साधनजात अवस्थाको इस अवस्थाके साथ मिला लो, और शंकाशून्य हो जाओ। अखण्ड काल को भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान इन तीनों खंडोंसे बांधा गया है केवल परिणामको समझनेके लिये। अति सूक्ष्म वर्तमानसे खिसक जानेही से परिणाम शेष होता है, अर्थात् अपरिणामीके गर्भमें प्रवेश करता है। वह अपरिणामी अवस्थाही विष्णु वा व्यापनशी अवस्था है। कालके क्रम अनुसार ( क्रियाकालमें ) साधक जब प्रवाहाकारसे अपरिणामीमें उन परिणामियों के परिणाम देखते हैं (अर्थात् वर्तमान दृश्य पदार्थ जब भूतके गर्भमें प्रवेश करता है, देखते हैं ), तब साधक को भी इसका अनुभव होता है,-अहो! यह जो. परिणामी विश्वसंसार है, यह जैसे एक अतुल प्रतापवान तेजोमय मुखमें प्रवेश करता है, और वह विश्वभोक्ता मुख जैसे चबाचबा कर विश्वका खाद लेते हुए समस्त विश्वको उदरस्थ करते हैं ॥३०॥